कितनी भी हो काली रात
सुबह आती ही है
जहाँ होती है दिलों की बात
सुलझ जाती ही है
मिला दिल को शुकूं और लबो को जो हंसी
तो कर गए फिर एक गुस्ताख़ी हम
पर क्यों दिल बस कह रहा है शुक्रिया
क्यों पड़ गयी हज़्ज़ार माफ़ी कम
है मेरी , जैसी भी है
तू जिंदगी कमसिन
ए रूह, तुमसे भी मिलेंगे
कमब्खत एक दिन
कमब्खत उस दिन
न होगी रात और न दिन
एक लम्बी शाम होगी
आसमा चाँद बिन
फंसाकर इन उंगलियों में उंगलिया
हेना से रंग दू हथेली, मैं तुम्हारी भी
लिख जायें दास्ताने इश्क़ आज
लब्ज़, कुछ तुम्हारे और कहानी कुछ हमारी भी
तुम्हारा दिल धड़कता है
हमारा नाम उसमे क्यों?
तेरा गुलशन महकता है
हमारा काम उसमे क्यों?
है चिलचिलाती दोपहर
झुलसते जिस्म हालात में
शुकूं का एक लम्हा, बस
हमारी शाम उसमे क्यों?
न कहनी है
न करनी है
न सुननी है
बस
ठहर जाओ
हां, मनमानी.
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