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Showing posts from January, 2017
टूटती शाख़ शाख़ शाख़ से लगी कली सूखती मरती जड़ें गर्त में कहीं पड़ी चुप चाप बिन आहट उजड़ती सी जिंदगी देख कर , मुह मोड़ते बियावान के कांटे की ये पौध , इस जमी में मेरे नस्ल की तो नहीं क्यों सींचे इसे मेरे आस्मां का पानी क्यों मेरे सूरज की किरण से हो , परायी पात धानी रे मूढ़ , देख रंग बादल सूरज हवा रुख नहीं बदलते आज ये , तो कल तू भी आग की लपट , पता नहीं पूछते
मुकम्मल हर इश्क़ जो होता तो कैसे ये जबान नमक आंसुओ का चखते न राते हिज़्र की आती न अस्मा के तारे ही गिनते न जानते जहर भी पिया जाता है ऐसे न अपने सीने पे हाथ रख उनकी धड़कने सुनते
पिया आवारा गलियो की धूल निकला इश्क समझा वो , जवानी की भूल निकला   तीर प्यार का समझ जो कसक पाल रहे थे वो फांस गले की जिगर का शूल निकला
किसी की रूह में आज होके गिरफ्तार बून्द बून्द फिर शुकुन को तरसने का जी करे   उम्र भर तुझे पा पा के खोया अब जो खोया तो बस एक बार पाने का जी करे
न बैंड न बाजे   न सेहरा न घोड़ी   फिर भी वक़्त पे आकर   हाथ थाम लेना   प्यार नहीं तो और क्या है   न फूल न तोहफे   न वादे न सिफारिशें   फिर भी   पर्वतो से अडिग , निभाना   प्यार , और क्या है .  न रोना न तड़पना   न ही झूमना हो चंचल   न कुछ दिल की   कहना बस , करते चलते जाना   राह एक , राह सीधी   तेरे दिल से मेरे दिल की   प्यार ही तो है