टूटती शाख़ शाख़ शाख़ से लगी कली सूखती मरती जड़ें गर्त में कहीं पड़ी चुप चाप बिन आहट उजड़ती सी जिंदगी देख कर , मुह मोड़ते बियावान के कांटे की ये पौध , इस जमी में मेरे नस्ल की तो नहीं क्यों सींचे इसे मेरे आस्मां का पानी क्यों मेरे सूरज की किरण से हो , परायी पात धानी रे मूढ़ , देख रंग बादल सूरज हवा रुख नहीं बदलते आज ये , तो कल तू भी आग की लपट , पता नहीं पूछते
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