बिन मौसम की बारिश ने आज तड़के ही जैसे सारी धरती को सिक्त कर दिया था. कॉफी के कप को हाथ में लिए नीरा आंखे बंद किये जैसे ठिठक सी गयी. जैसे झूम के बुँदे गिरी थी, लगता है उसी उत्साह से सूरज उन्हें सुखाने को चमक उठा है. पैरो के नीचे भींगी मिट्टी और माथे को चूमती सुनहरी किरणे , क्या प्रकृति का यह आशीष काफी नहीं? क्या इतना काफी नहीं? आखिर और चाहिए क्या तुझे? नीरा नहीं जानती क्यों लेकिन बुँदे उसके आँखों से भी झरने सी लगती है. वो वही , वैसे ही रुक जाती है. शायद इस उम्मीद से की धूप इन बूंदो को भी सुखा ले. पर उसके नैनों में तो जैसे आज नलके लगे हैं. काफी शॉप से और लोग बाहर आ रहे हैं, नीरा चुपचाप कार में बैठती है और अनमनी सी घर को चल देती है.
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आकाश और धरा
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मिलिए धरा से, जैसा नाम वैसे ही मिटटी में बसती है इसकी सीरत। स्कूल से आते ही पहले अपने बस्ते से कापियां निकलना और कक्षा में दिए गए कामों को खत्म करना. न तो खाने की सुध न खेलने की. और सब कुछ निपटलेने के बाद , धूप हो या बारिश बैठ जाना अपने बागान की क्यारियों पर. घंटो , अनवरत. कभी चुपचाप तो कभी शब्दों में निरंतर बात करती है ये अपने पेड़ पौधों से. सभी के अलग अलग नाम हैं. अलग अलग व्यवहार और विचार भी हैं. ऐसा धरा का सोचना है. जैसे ये सेम की लत. ये बड़ी चंचल सी है, हर कोने से झांकती इसकी लते बढ़ी चली जा रही है और अब तो बालकनी से निचे पडोसी के ही घर पहुंच जाएँगी लगता है. ये बात सोचकर ही धरा अपने में ही हसने लग जाती है और इस बात को जांचने के लिए अब तो वो बालकनी की रेलिंग से निचे देखने की कोशिश कर रही है. माँ की नजर पड़ जाती है, जो की अभी बरनियो में अचार को धूप लगाने बाहर आयी थी. धरा की छोटी से देह अबतक आधी से ज्यादा रेलिंग के दूसरे तरफ है. उफ़ ये लड़की. "क्या कूद ही जाओगी अब?" चौंककर धरा वापस ईट के क्यारी पर बैठ जाती है. मन ही मन सोचती है, कही सच में गिर जाती त