गुलाबी एक धागा

 जब जब दूर , दूर से 

तुम महसूस होते हो

जब जब खींचता है मन 

और लगता है, सिर्फ मेरा

जब जब रोकना फुसलाना 

बहलाना पड़ जाता है मन को 

जब जब पुरानी टीस बहाने 

से उभर आती है , ज़ोर से 


तब तब

तब तब 


कोई कड़वाहट नहीं बल्कि 

सनी सी शहद में कोई हंसी 

हम ढूंढ लाते है 

और गुलाबी एक धागा 

उंगलियों में बाँध लेते है 

कसकर , ठीक वैसे 

जैसे तुमने , बाँध रखा था 

मुझे एकबार 


तब तब 

तब तब 


टूटकर एकबार फिर से 

मन बिखरने का , मुझको 

रोक लेता है और मैं वहीँ 

कही बंधी पड़ी रह जाती हूँ 


जब जब , तब तब

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