दुर्गा पूजा और मेरा घर, कोलकाता. मेरे बचपन का घर, अल्हड़पन के दिन सब जैसे बिलकुल घनिष्ट हो इन दुर्गा पूजा के ही दिनों के. पंडालों का तिनका तिनका जुड़कर बढ़ना और स्कूल से आते जाने नापना कौन सा कितना रेडी हुआ. इंतज़ार एक एक दिन का और भगवती के आगमन से जैसे एक नयी जान ही फूंक जाया करती थी, हर उस चीज़ में जिसे मनुष्य प्रायः प्राणहीन समझता है.... सड़के गली मोहल्ले दीवार ... जिधर देखो सब जीवंत. सब की धड़कने गूंजती ढोल में , शंख में , घंटियों में ,उलू में या यदा कदा बाज़ारो के शोर में, सर्वत्र एक ही संगीत जैसे प्रकृति भी कह रही हो 'माँ एशेछेन ' ( माँ आ गयी हैं). माँ का आना अपने घर, अपने मायके आखिर क्यों कर कोई कसर बाकी रखे कोलकातावासी ....बेटियों के स्वागत में. जगतजननी भगवती के साथ, हर घर की हर भगवती को और उनके आगमन को पलके बिछाये हर व्यक्ति विशेष को मेरी ओर से 'शुभो विजया'.
प्रेम है
कभी रूह से और कभी देह से तुम बुला लेना और बता देना की प्रेम है कभी रूठकर और कभी बहल कर सता लेना और हंसा देना की प्रेम है कभी पास रहकर कभी दूर जा कर दिखा देना और देख लेना की प्रेम है हूँ जिन्दा की मुर्दा कौन कहे देखकर बस जान लेना की सांस है तो प्रेम है
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