कोलकाता - मेरी जन्मभूमि. कभी भी मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं होंगे यह व्यक्त करने को, की क्या क्या मिला है मुझे बस वहां जन्म लेकर. कितने गौरव और कितने आह्लाद से आज भी वहां की हवा के स्मरण मात्र से जैसे जीने की अभिलाषा पुनः जीवित हो जाती है. हाँ, उसी धूल कोलाहल और पसीने में सनी हवा. भाषा यु तो मैंने वहां की सीखी ज़रूर पर निभाई हिंदी के साथ, पर जहाँ बात भावनाओ की आती है और अपने घर की वो तो बस एक ही है. साक्षात् भगवती का घर, दखिनेश्वेर का ईंट वाला लाल आंगन और मटमैली गंगा की निरंतर बहती तटस्थता. अपना तो बस वही घर है... जो है. इस हाड मांस के शरीर में जो आत्मा अविचल धधकती है वो शायद वही रचने बसने को तरसती है. जो भी अध्याय आजतक लिखे, उस लेखनी में स्याही इन्ही अनुभवों का है जो मुझे वहां की हवा मिटटी ने दिए. वही ढोये बाँटते और सुनते चलती हूँ.... मांझी रे

Comments

Biva said…
kolkata apne aap mein sampurn hai manusya k janm se ant tak k safer ka
sanskaar, sanskriti, prem, kawya aur kala ka misran kolkata.

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