रोग

रोग ही तो है।की बंद आँखों के पीछे, खुद ही खुद को छलता है मन। 

हाँ हमारा अपना ही मन।सपनो को ढाल बनाकर हर रोज़, खड़ा हो जाता है हमारे सामने। हर सुबह।
और हमारे हाथ में होती है डर, शर्म , क्रोध, क्षोभ के भाले। निशाने पे हमें रखता है मन और हमें लगता है, अब हुआ की तब हुआ हमला। हवा के झोके , पत्तो की सरसराहट, काना फुंसी, यदा कदा कुछ भी जैसे हमें अंदर तक भयभीत कर जाते हैं। सहमे और डरे से आतंक में होते हैं हम हमेशा। और फिर, वो एक बात जैसे युद्ध का आवाहन सा बन जाता है और घबराहट में हम आंखे मूंदे हुए अंधाधुंध चलाते है अपने हथियार।
एक एक करके सारे सपने, अरमा होते है ख़तम  और उनके साथ मर रहे होते हैं धीरे धीरे हम। पता भी नहीं चलता। दोष किसका ? अपराधी कौन? जान तो गयी है, मौत तो हुयी है पर खून बहा किसका? कौन करे इलाज़? कौन पता करे की आखिर जीता कौन और हारा कौन? कोई नहीं। 

कब तक लड़े ये लड़ाई, अपने आप से। ये तो जैसे रक्तबीज सा है , नए नए बहाने बनाकर आजाता और हम फिर उठालेते हैं हथियार, अनायास ही।गला भर आता है मेरा जब देखती हूँ छतविछत देह अपने ही नन्हे सपनो की। ये भरोसा करते थे मुझपर, मैंने पाला था इन्हे जब पनप रही थी कोपले। ये छोटे और बेवजह रह गए और मैं बड़ी हो गयी। इतनी बड़ी की मुझे अधिकार है अपने हथियारों से अपने ही सपनो को रौंद देने का। क्या दोष था इनका? 
 
बहुत ही निस्सहाय हूँ आज , समझ नहीं पाती  की क्यों नहीं मेरा मन मुझे अपनाता है, जैसी हूँ वैसे ही और मेरे साथ बैठकर सपनो के महलो को खड़ा होते देखता है?
क्यों नहीं मैं और मेरा मन खिलखिलाते है जब समय की लहर यु ही रौंद कर चली जाती है हमारे रेत के महल।
क्यों मुझे कटघरे में खड़ा कर देता है। खुद ही सवाल पूछता है और जवाब भी देता है। मेरे आंसू मेरे आहत होने की जरा भी नहीं पड़ी इसको।

रोग ही तो है।

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