मीरा और कृष्ण

मीरा और कृष्ण

बचपन से ही, जब से माँ के मुंह से मीरा के भक्ति गीत सुने है, मन में एक छवि विराजमान है. कृष्ण की नहीं, मीरा की. दिमाग शुरू से ही थोड़ा तेज़, थोड़ा काल्पनिक और थोड़ा दुविधाओं में फंसा हुआ सा रहा है मेरा. इसीलिए शायद, मन बड़ी जल्दी ही कल्पनाओ के घोड़ों पर सवार हो, दूर निकल जाने की क्षमता रखती हूँ, पर ये बात और है की कही पहुंचना नहीं चाहती. और यही बात कुछ एकदम से फिट होती है, मीरा पर.
राजघराने की विधवा, जिसने न विवाह जाना न ही उस पति का प्रेम जिसने उसे मंडप में सबके सामने अपनाया था. सिर्फ, सबके सामने अपनाया था. भीतर कहीं, मीलों गहरी खाईयां थी, जो न जीवन में पटी और न ही मृत्यु पर्यन्त.
पर मीरा तो बनी ही थी प्रेम और भक्ति के लिए. उसने न छोड़ा प्रेम करना, भले वो प्रेम उसके काल्पनिक कृष्ण का ही क्यों न हो. मीरा की शरीर भले हाड़ मांस का बना हो, लेकिन मुझे इसमें कोई शक़ नहीं की उसकी धमनियों में सिर्फ और सिर्फ प्रेम बहता था. सर से लेकर पाँव तक, भक्ति की मूरत जो की रिस रिस कर टपकता है उसकी एक एक पंक्तियों से. पांच सौ बरस बाद भी , मीरा की लिखी एक एक पंक्ति उतनी ही भीगी भीगी मालूम पड़ती हैं, जितनी शायद तब रही होंगी.
चाहे हो वो मीरा की गुहार हो, की कृष्ण "अब तो दरस देदो कुञ्ज बिहारी, मनवा हैं बैचेन" , या फिर बादलों पर टकटकी लगाए उम्मीदों में पिरोयी शब्दों की लड़ी "मतवारो बादल आयें रे, हरी को संदेसों कछु न लायें रे", या फिर सीधे सीधे दिनिया भर से कह देना की बस प्रेम है तो तुमसे "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई|, जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई". और ये सब मीरा किसी बंद डायरी में नहीं लिखती , वो तो गा गा कर, नाच नाच कर पुरे महल, पुरे संसार को कह देना चाहती है. कहती रहती है, बिना किसी झिझक बिना किसी परवाह के. बृन्दावन और ब्रज की गलियों तक को नहीं छोड़ती दीवानी मीरा रानी. खुद ही ऐलान करती हैं मीरा "पग घुंघरू बाँध मीरा नाची रे ".

इन सब में कृष्ण की क्या भूमिका है? कुछ भी नहीं. नितांत ही अनावश्यक है , कृष्ण का होना और न होना।  इस ऐतिहासक दृश्य पटल पर तो सिर्फ मीरा और मीरा का अडिग प्रेम ही है जिसपर आज भी हर वो ह्रदय न्यौछावर हो जाता है, जिसने प्रेम करना जाना है.
मीरा सिखाती है की कुछ ऐसा प्रेम है उनका जिसमे नियति सिर्फ त्याग है, पाना नहीं.

"तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई|
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई||"

बहुत ही साफ़ साफ़ दिखता है इनको की जिस मार्ग पर वो अग्रसर हैं, वो हर श्रेणी के लिए कलंककारी है तो कुल मर्यादा अदि का त्याग भी अनिवार्य है.

उस समय में भी, एक कवी ही दूसरे कवी का ह्रदय समझ सकता है तभी तो मीरा पत्र लिखती है तुलसीदास को. ये क्या महज संजोग है की दोनों महाकवि समकालीन होते हैं? बिना सोशल मीडिया के भी जान लेते हैं एक दूसरे को और मीरा पूछ बैठती है उनके दुविधा का निवारण?

घर के स्वजन हमारे जेते, सबन उपाधि बढ़ाई
साधुसंग अरु भजन करत, मोहि देत कलेश महायी
सो तो अब छुटत नहीं क्यों ही , लगी लगन बरियाई
बालपने से मीरा किन्ही, गिरधर लाल मिताई
मेरे माता पिता के सम हो , हरी भगतन सुखदायी
हमहू कहा उचित क़रीबो है, सो लिखियो समुझाई

तुलसीदास भी दो टूक समाधान लिख भेजते हैं मीरा को.

"जाके प्रिय न राम वैदेही , सो छाँड़िये कोटि बैरी सम , जद्दपि परम सनेही"

बस, और क्या चाहिए मीरा को. कृष्ण का प्रेम तो उनमे अन्तर्निहित है ही, तुलसीदान की वाणी में मिल गया है उन्हें उस भावनाओ का परिज्ञान.
फिर क्या, इतिहास गवाह है और हम आप भी. बात इतनी सी है की, अगर आप जान जाईये मीरा को तो फिर जीवन के हर क्लेश को कुछ और नाम देने लगेंगे आप. पर सबसे पहले अतिआवश्यक है , मीरा जान जाये स्वयं को. मीरा जान जाए, स्वयं को. 

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