एक और बात.

भूल गयी थी कहना, इसीलिए लिख रही हूँ. पढ़ते रहिये, यक़ीनन बड़े काम की है. ख़ास कर अगर आप अभी भी प्रेम की तलाश में है और मन के अंधेरो में हर तनहा रात में हाथो से टटोल कर देख रहे होते है, की कहीं छिपा बैठा तो नहीं. कभी कभी आप अपनी उंगलिया भी सूंघ कर देखते है, आ रही है क्या इनसे कोई जानी पहचानी खुशबु। वही मन की गलियों वाली.
और तब, अगर आपकी सेंसेस अभी तक ठीक ठाक है , आपको महसूस हो जाएगी मिलावट.
तो बस यही टॉपिक है आज हमारा, मिलावट वाला प्रेम.
कैसी  मिलावट ? अरे, ठीक वैसी वाली,  जैसे साबुत मूंग की दाल में कंकड़। और आपने इतने जतन से उस मूंग की दाल का तड़का बनाया हो , घी हींग लाल मिर्च के छौंक से. जब फाइनली, परोस कर खाने बैठे हो की अहा अब स्वाद वाले सारे सपने साकार होने वाले है. ठीक तभी, आपके पीछे वाली दांत के नीचे आता है वो कंकड़.
जी में आता है, ये दाल की कटोरी उठा कर फेंक मारूं अभी के अभी. लेकिन किसे? जिधर भी फेंकू, चोट तो मुझे ही लगने वाली है.
ऐसे ही, कुछ मन को भ्रमित कर जाता है आपको अगर सामना हो जाये कभी ऐसे "मिलावट वाले प्रेम से". देखने में ये भी शुद्ध प्रेम जैसे ही होते हैं, लेकिन आजकल शुद्ध प्रेम मिलता कहाँ है. हर दुकान पर, बस यही उपलब्ध है और लोग खरीद भी रहे हैं. पेट भरना है न किसी तरह.
इधर हम आंख बंद कर छलांग लगा चुके होते है, प्रेम की खाई  में और उधर पैराशूट ही नहीं खुलता. उसमे भी मिलावट होती है और बस महसूस होते है गले में फांस की तरह बंधे रस्से। कोई कहता है, अरे ये प्रेम की डोरी है. लेकिन ऐसा है तो कभी कभी दम क्यों घुटने लगता है इसमें? कभी कभी ऐसा क्यों लगता है की, एक ही झटके में सामने वाला इसे काट फेंकेगा और धकेल देगा मुझे इस खाई  में जहाँ से कोई कभी वापस नहीं आया. कुछ भी करके, टंगे रहो बस इसके साथ क्युकी कभी कभी तो आती है न वो  खुशबु ? सच्चे प्रेम वाली.
हाँ, सच है की ज्यादा देर टिकती नहीं। लेकिन अब टिकता तो कुछ भी नहीं न. तो फिर ? जैसा है रहने दो, झूलते रहो इस खाई में।
कुछ ऐसा ही होता है, मिलावट वाला प्रेम और उसमे पड़े रहना। अफ़सोस की बात ये है की, कभी कभी बरसो ही नहीं पूरी उम्र निकल जाती है और हम मिलावट वाली किस्म को असर समझ कर चबाये जाते है.
गारंटी है की जिसको भी प्रेम का चस्का है, उसके पल्ले ऐसा वाला प्रेम एक न एक बार ज़रूर पड़ा है. और ये मिलावटी, किफायती, प्रैक्टिकल प्रेम इतनी मात्रा में है न मार्किट में की इससे न तो बचना आसान है, न इसे वक़्त पे पहचान लेना और खुद को किसी तरह इससे बाहर निकाल लेना.
ये जान लेना की वो जो सच्ची वाली खुशबु है न, वो अपने ही भीतर से आ रही है. सामने वाला सिर्फ और सिर्फ इसमें मिलावट कर रहा है, छेड़छाड़ कर रहा है और सोंख रहा है एक जोंक की तरह इसमें से प्रवाहित होने वाली जिंदगी.
इससे बचने का कुछ उपाय?
आंख कान खुले रखो, और क्या. लेकिन कहना आसान है , करना नहीं.
प्रेम अँधा जो होता है. 

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