रंगरेज़

रंगरेज़

रंगरेज़ ही तो हो तुम, की चलती ट्रैन में मेरी कमर पे उंगलियां रखी और सब ऐसा गुलाबी हुआ की आज बीस बरस बाद भी वैसे का वैसा है. गुलाबी साड़ी पहनी भी थी मैंने, वैसे साड़ी पहली बार पहनी थी. सफ़ेद धागों का कुछ महीन सा काम था पुरे बॉर्डर पर. कोई वजह मुझे याद नहीं की क्यों साड़ी पहन कर उस दिन ट्रैन से जाने का तय किया था. हाँ ये जरूर पता था की तुम उसी ट्रैन से जाओगे ऑफिस आज. हमारी बात हुयी थी सुबह. लेकिन बात कुछ अधूरी रह गयी थी, शायद इसीलिए? पूरी करनी थी.
कितनी पूरी हुयी ये तो पता नहीं, पर उस लम्हे में जिंदगी जरूर थी.

बात तो हर रोज़ होती थी पर आज जरुरी हो गया था , की कुछ जज्बात , कुछ हालात बाँट लिए जाए. अब हर ट्रांसक्शन टेबल कुर्सी में बैठ कर नहीं होते, न ही डॉक्युमनेट्स साइन करके. कुछ तो होते है , जून की दुपहरी में, ठसाठस भरी ट्रैन के जनरल कम्पार्टमेंट में.

हाँ, कुछ ऐसा हुआ था. अरसे हो गए पर अभी भी आँखे बंद करती हूँ तो चलती ट्रैन में आ रही तेज़ हवा मेरे पीठ को ठीक वैसे ही छु कर गुजर जाती है , रोंगटे फिर एक बार है और दिल धड़क कर सीने से लगभग बाहर आ ही जाता है समझो. और रंगरेज़ मेरे , गुलाबी तो उस दिन शाम भी हो गयी थी और मेरा चेहरा भी. देख रहे थे तुम, मुझसे तो देखा भी नहीं जा रहा था. जो हो रहा था, बस हो  रहा था. पल थम गया था, साँसे भी बस ट्रैन चल रही थी और धड़कने, बेतहाशा।

कुछ उँगलियाँ तुम्हारी मेरी कमर पे थी, और दूसरी मेरे हाथ की उंगलियों में फंसी। अब याद आया, मैंने ही उलझाए थे वो धागे , वरना तुम से कहाँ होने वाला था. अपनी रंगो की पोटली लेकर बैठे रहते क़यामत होने तक. जानती थी, बड़े गहरे गहरे रंग लेकर घूमते हो तुम गली गली ,  तो क्यों न अपना ही मन रंगवा लूँ ?

ख्याल बुरा नहीं था, अफ़सोस भी नहीं पर बस एक ही समस्या है।  कमबख़्त , अब कोई और रंग नहीं चढ़ता बस।  ये वाला डिस्क्लेमर नहीं दिया तुमने ? मैंने भी कहाँ माँगा था? बिना देखे सुने हस्ताक्षार कर दिए थे की बस , रंग दो. और , ठीक वैसा ही किया तुमने. रंग दे चुनरी पी के रंग में? यही कहा था न?

लेकिन, कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला?

दिल बन गया सौदाई, दिल बन गया सौदाई। 

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