ऐसे कैसे न बोलोगे

"मैं ही क्यों?"

कुछ नहीं बोलती मीरा.

"बोल न? वरना चला जाउंगा मैं."

कबीर ढीठ होकर जरा सा धमकी के लहज़े में कहता है. कुछ तो असर करेगा इसपे।

फिर भी , कुछ नहीं कहती वो एकबार फिर.

"सुन भी रही हो? जाओ नहीं बोलता मैं भी कभी तुमसे। "

अब रुठे से अंदाज में मुंह घूमा लेता है.

"ऐसे कैसे न बोलोगे?"

 कबीर की ठोढ़ी पकड़ कर अपने चेहरे के सामने ले आती है और अब वो देखता रह जाता है. ऐसे, जैसे पहली बार देखा था.

"क्या हुआ? बोलती बंद हो गयी? बोलो क्या पूछ रहे थे? यही न की , तुम ही क्यों कोई और क्यों नहीं ?. मुझसे नहीं पूछ रहे ये सवाल, मन में झांको और जानलो , ये सवाल तुम खुद से पूछ रहे हो. खुद जानना चाहते हो की तुम ही क्यों? मैं तो जानती ही हूँ. इसीलिए तो यही हूँ डटी और टिकी। न कभी कम, न कभी ज्यादा। न कभी कुछ चाहूंगी , न कभी कुछ मांगूगी। जवाब भी नहीं, कोई सवाल भी नहीं। चलेगा? निभेगा तुमसे ? लेकिन बस रहने दो, रह जाने दो न मुझे ठीक मेरे जैसे"

हाथ जोड़े, नैने में जल भरे.

ना, ऐसे नहीं देख सकता तुझे मैं, कबीर मन ही मन विचलित होता सोचता है. तू तो गुस्साती , चिल्लाती और नखरे करते ही ठीक लगती है.

"जान गया, अब न पूछूंगा। लेकिन हर रोज़ तुझे बताऊंगा जरूर, की तुम्ही क्यों. क्युकी शायद सारी  उम्र भी कम पड़ जाएगी मेरी ये बताते बताते और बात ही ख़तम न हो. तू ही क्यों? क्यों खास हो इतनी तुम मेरे लिए. बोलूंगा तो सुनोगी न ? इतना सा होगा तुमसे?"

कबीर, अपनी हथेलियों के बीच छिपा लेता है उसके दोनों हाथ. कौन किसने हाथ जोड़ रहा है, कौन किसकी विनय कर रहा है, कौन किसकी बात मान रहा है और कौन किसकी मनुहार, बताना नामुमकिन भी है और गैरज़रूरी भी.

खिलखिला उठती है फिर से मीरा. कबीर के आँखों की रौशनी, दिल की धड़कन और चेहरे की रौनक। सबकुछ सबकुछ।

"कितना बोलते हो तुम! पता है नहीं ख़तम होगी तुम्हारी बाते, एक बार शुरू हुयी तो. इसी डर से छिपती फिरती हूँ तुमसे। लेकिन तुम कौन सा मान जाओगे, बोलो। .. सुनूंगी "

और फिर क्या था, कबीर कहता गया मीरा से की "वही क्यों?" और वो चुपचाप सुनती रही , कभी हंसी , कभी रोई , कभी शर्मायी और कभी कभी तो उसकी गोद में सर रखकर सो भी गयी. कबीर न रुका, वो तो कहता गया , तबतक जबतक ठंढी न पड़ गयी सूरज की आखिरी किरण, खाली न हो गये आसमान के हर तारे, बादल बारिश और हवा , सब विलीन हो गए अनंत से लेकर अनंत में।

लेकिन मीरा जानती है , कबीर के पास कुछ और जरूर बच गया होगा कहने को.

वो तो बिना सुने ही सब जानती थी. 

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