श्री दुर्गा सप्तशती - रीसर्च और रेलेवेंस
अठारह साल पहले, जब मैंने अपनी जन्मभूमि से विदा ली थी और एक अनजान देश में , अनजान पथिक के साथ प्रयाण किया था, माँ ने हाथ में श्री दुर्गा सप्तशती की एक कॉपी थमा कर विदा किया था.
मैं नहीं जानती वह विदा था या मेरा पलायन।आज तक ये उधेड़ बुन चलती रहती है मन में , लेकिन हर साल दुर्गा पूजा में मैं पुस्तक का पाठ ज़रूर करती आयी हूँ. काफी हिस्से तो रटे हुए हैं, कुछ माँ की आवाज़ में आज भी कानो में गूंजते है और कुछ मन के यदा कदा कोनों में अनायास ही.
अनगिनत किये जाने वाले एकांत के क्रिया कलापों में से एक ये भी है, प्रार्थना.
किताब पर अगरबत्ती, मोम और दिए के धुँए की परत अब बैठ सी गयी है.
जीवन के इस मोड़ पर, जब कई सवाल मुँह बाकर खड़े हो गए मेरे सामने, कुछ न सुझा तो मैंने फिर से अध्यात्म का सहारा लिया. सरस्वती का थोड़ा बहुत आशीर्वाद रहा ही है, सोचा अगर कुछ कृपा भगवती की भी हो जाए तो कुछ न कुछ करके मैं पास हो जाउंगी इस इम्तेहान में भी.
मरता क्या न करता, एक आध रूल और तोड़े. अब बिना खाये, नहाकर , दिए जलाकर ही किताब खोली जाए ऐसा कहाँ लिखा है? वैसे भी अब ये किताब मैं सिर्फ अध्यात्म और भक्ति नहीं पर रीसर्च और रेलेवेंस के लिए पढ़ना चाह रही थी. आखिर जीवन का इतना समय अगर मैंने इसपर आँख मूँद कर विश्वास किया है, कुछ तो बात होगी? लेकिन क्या ? वही पता लगाना था.
तो क्या, शाम में नोटबुक , पेन, लैपटॉप और रेड वाइन की गिलास के साथ मैंने अपनी पढ़ाई शुरू की. अगर मेरे रेड वाइन गिलास से आप को आपत्ति हो रही है , तो अभी के अभी यही पढ़ना बंद कर सकते हैं. क्युकी, मैं गारंटी के साथ कह सकती हूँ की आपको आगे पढ़कर वो सब कुछ नहीं मिलने वाला जो आजतक आप "परिवर्तन रहित" और "सुरक्षित" जीवन की परिकल्पनाओं में पाना चाहते हैं.
ठीक?
तो शुरू करें?
ॐ नमश्चण्डिकायै।
सबसे पहले आता है स्वयं महादेव शिव के शब्दों में देवी की आराधना और महिमा का गुणगान, जैसे की "सर्वकार्यविधायिनी" और "दारिद्रय दुख भय हरिणी".
चराचर के मंगल कामना और रोग भय से मुक्ति के लिए, नारायणी नमोस्तुते कहते हैं शिव और ये है सप्तश्लोकी दुर्गा का सार.
उसके बाद शुरू होता है "श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्त्रोतम".
आम भाषा में , दुर्गा के १०८ नाम जिनके श्रवण से भगवती प्रसन्न हो जाती है और फिर तीनो लोको में कुछ भी असाध्य नहीं होता. धन, संपत्ति, धान्य , पुत्र, स्त्री , घोडा, हाथी , धर्म और अंत में सनातन मुक्ति भी. पुरुष वर्ग का कई बार उल्लेख और यहाँ पे मेरी सुई जरा सी अटकी. फिर से पढ़ा मैंने, कन्फर्म करने को. गिलास फि रिफिल किया एक बार उठकर। एक बात क्लियर थी, इसको पढ़ने का प्रिस्क्रिप्शन बिलकुल ही साफ़ सब्दो में पुरुषो के लिए थी, क्युकी स्त्री की आकांक्षा रखने वाली महिलाओ का प्रसंग तो ये हो नहीं सकता. साथ ही, पुत्रियों की प्राप्ति का भी कुछ विश्लेषण नहीं मिला इसमें.
बातो को नोट करके, मैंने अगला चैप्टर शुरू किया.
तो अगला है, देवी कवचम। कवच मतलब शील्ड, प्रोटेक्शन. काफी इंटरेस्ट से मैंने भी पढ़ना शूरु किया , वैसे भी माँ ने हमेशा कहा है कुछ और पढ़ो या न पढ़ो कवच और १-२ चीज़े ज़रूर पढ़ लेना। माँ की यही बात बहुत पसंद आती है मुझे, हमेशा कुछ न कुछ उपाय बता देगी.
बुखार है ? ये कर लो.
दर्द है? वो कर लो.
समय का अभाव है ? तो इतना ही कर लो.
बड़ी एकमोडेटिंग जिंदगी का पाठ पढ़ाया है हमेशा। अब ये हुआ मेरे जननी की व्याख्या, वापस जगत जननी पे फोकस करते हैं.
तो कवच में कुछ ऐसा कहा गया है की , जो मनुष्य आग में जल रहा हो , रणभूमि में शत्रुओ के बीच घिरा हो , विषम संकट में हो और भय से आतुर हो. इसका पाठ करते ही शोक, भय और दुःख से मुक्त हो जायेगा। देवी के कई सारे रूप इसमें बखान किये गए है. हरेक रूप में वह क्रोध से भरी , सौंदर्य से रिक्त , अस्त्र और शस्त्र से युक्त सिर्फ और सिर्फ भक्तो के रक्षा के दृढ उद्देश्य को लिए हुए दृष्ट होती है.
इसमें दुर्गा के अलग अलग रूप , अलग अलग अंगो को सुरक्षा करते कहे गए हैं. जिसमे लिंग , वीर्य, पुत्र और पत्नी की रक्षा का भी उल्लेख है.
ये वाला पार्ट मैंने दो बार पढ़ा, एक बार और पढ़ा. फिर लिखा, फिर से पढ़ा. क्युकी , मैं ढूंढ रही थी मेरे रेलेवंस का माध्यम.
नहीं मिला. न.
योनि या पुत्री के सुरक्षा के लिए भगवती के किसी स्वरुप को न ढूंढ पायी मैं. अब पति तो स्वयं पुरुष होने की वजह से, ऐसे ही सुरक्षित हो गए होंगे अबतक. नहीं?
कवच के पाठ से हर अभीष्ट वस्तु की कामना पूर्ण होती है, विजय की भी प्राप्ति होती है, पुरुष तुलना रहित और महँ ऐश्वर्य का भागी होता है. वो युद्ध में भी पराजित नहीं हो सकता, तीनो लोको में पूजनीय और हर बीमारी से मुक्त हो जाता है.
अन्ततः , कनेर , भांग , धतूरा यहाँ तक की सांप, बिच्छू जैसे बिष और रसायन आदि के प्रभाव से मुक्त हो जाता है.
ये तो कमाल हो गया. तो भांग या धतूरे के व्यसन में कोई बाधा नहीं है, अगर आपके पास देवी के कवच की सुरक्षा हो? परन्तु , सबसे पहले आपका पुरुष होना जरुरी है.
कुछ समझ आया, कुछ नहीं भी आया। जी में आया अभी तुरंत माँ को फ़ोन करके पूछ डालूँ। लेकिन देश में देर हो चली थी और अभी भी डर था किसी कोने में , मेरी बहस सुन कर कही मेरी ही माँ मुझे से धर्म से च्युत न समझ डाले।
इसीलिए भावनाओं को लिख कर साझा कर रही हूँ , और आगे बढ़ते हैं.
प्रथमोध्याय
ये अध्याय मधु कैटभ वध का प्रसंग है. अध्याय के शुरू में सूर्य पुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है.
सुरथ नाम में एक धर्मपालक राजा का द्वेष कोला विध्वंशी क्षात्रियों से हो जाता है जिनसे वो पराजित भी हो जाते हैं. पराजय के बाद उनकी सीमा अपने राज्य तक सिमित हो गयी और बल क्षीण. तो उन्होंने मेधा ऋषि के आश्रम में शरण तो ले ली पर मन राज्य पर ही टंगा रहा. एकदिन उनकी मुलाकात वहीं पर वैश्य (व्यापारी) समाधि से होती है जो खुद अपना धन इत्यादि धोखे से हर लिए जाने पर कुंठित है वो भी अपने परिजनों द्वारा.
दोनों साथ में मेधा मुनि के पास जाते हैं. दोनों का राज्य, धन , परिजन, परिवार इत्यादि छूट जाने पर भी जो स्नेह और ममता उन्हें सता रही है , उसका पर्याय जानना चाहते हैं दोनों.
ऋषि ने अपने जवाब में जो कहा वो थोड़ा चौंकाने वाला था.
वो कहते है की हर जीव का आपने विषय मार्ग होता है और ये सब कर्म भगवान् विष्णु के योगनिद्रारूपी महामाया का मोह भर है. इसका पहला भाग मुझे सीधा भगवत गीता की याद दिलाता है, पर फिर महामाया का प्रसंग कुछ नया है.
राजा को भी अब महामाया के बारे में जानना है.
ऋषि के अनुसार वो अजन्मा और नित्य हैं पर देवों के कष्ट निवारण को प्रकट होती है. ब्रह्मा जी की स्तुति पर वो खड्ग शंख गदा धनुष चक्र इत्यादि धारण कर मधु कैटभ को नाशक करने प्रगट हुयी थी क्युकी विष्णु घोर निद्रा में थे और समस्त विश्व उनके उत्पात से प्रकोपित.
तो भगवती ने कही जाकर विष्णु भगवान् को योगनिद्रा से मुक्त किया, और फिर उन्होंने ५ हज़ार वर्ष का बाहु युद्ध भी किया मधु कैटभ के साथ. मजे की बात, मधु कैटभ भगवन को प्रसन्न होकर वर मांगने को वरदान में उन्होंने उनका अपने हाथों से मरना ही मांग लिया। इस तरह धोखे से संहार होता है मधु कैटभ का.
कमाल है, पहले ही पाठ में धोखे को वीरता और भरोसे से ऊपर का दर्ज़ा ?
खैर आगे पढ़ा जाय.
द्वितीयोध्याय
ये अध्याय है , कमल के आसन पर विराजमान प्रसन्न मुखवाली भगवती द्वारा महिषासुर की सेना का वध का प्रसंग.
इंद्रा के नेतृत्व में देवताओ की सेना और महिषासुर के नेतृत्व में असुरो सेना की सेना का युद्ध सौ बर्षो तक चला जिसने देवता हार गए. अब सभी देवताओ ने मिलकर अपने शरीर से तेज़ निकाला और प्रत्येक के तेज़ से देवी के अलग अलग स्वरूपों का प्रादुर्भाव हुआ. शिव के तेज़ से मुख, यमराज से बाल , विष्णु से भुजाये चन्द्रमा से स्तन , इंद्र से कमर इत्यादि। सब एक्सटर्नल ऑर्गन, लिवर किडनी हार्ट यूटेरस वो सब नहीं बताया गया है। वो सब तो मॉडर्न साइंस हुआ न ? लेकिन सोचने वाली बात है की कौन से साइंस में इतने सारे पुरुष देवता मिलकर एक महिला का सृजन कर लेते हैं? ये भी कोई मेजर साइंस एक्सपेरिमेंट से कम तो नहीं है न?
खैर , उसके बाद सब देवता अपने अपने हथियार , आभूषण इत्यादि देवी को देते हैं. अंगूठी, चूड़ामणि यहाँ तक की कमल के फूलों की माला भी. अब जब देवी का जन्म महिषासुर की सेना का वध करने के लिए हुआ है, तो इन आडम्बरो की क्या जरूरत ? ये मेरी कम बुद्धि से परे है.
सिंहनाद के बाद देवी महिषासुर की सेना के साथ युद्ध करती है , बाकी देवता भी साथ देते हैं. देवी का वाहन सिंह दावानल की तरह असुरों की सेना में घुस पड़ता है, चारो तरफ खून की नदिया बह रही हैं और धरती कटे हुए शरीरों पट गयी है।
सेना का विनाश , एक वीभत्स दृश्य और देवताओ द्वारा फूल बरसाए जाने के साथ ही ये अध्याय ख़त्म होता है.
तृतीयोध्याय
लाल साड़ी, रक्त चन्दन का लेप, मस्तक पर चन्द्रमा लिए तीन नेत्रों वाली देवी कमल पर आसीन हैं और उधर सेना के विनाश के बाद असुर क्रोधित। अंबर से बाणों की बर्षा हो रही है, शूल तलवार देवी से टकराकर चकनाचूर हो रहे हैं. बड़े डिटेल में सिंह, हाथी , देवी और असुरों के अलग अलग तरीकों से इस युद्ध में हिस्सा लेने का वर्णन भी है , जो मैं यहाँ रहने दूंगी. देवी कई असुरो का वध कर चुकी है इस अध्याय में जिनके नाम भी दिए गए हैं जैसे दुर्धर, दुर्मुख, अंधक, भिन्दिपाल , चामर , उदग्र और कराल इत्यादि. अब नाम ही ऐसे हैं की पढ़ने के साथ ही आपको भी उनपर क्रोध आएगा और उनका ये वध जस्टीफ़ाइड लगेगा।
अब आता है महिषासुर भैंसे के रूप में, लेकिन जब देवी उसे महाक्रोध के पास में बांधती है वो सिंह बन जाता है। उसके बाद वो हाथी भी बन जाता है , लेकिन सूंड कटने के बाद वापस भैंसा। इसमें देवी को मद के नशे में, आंखे लाल करते और लड़खड़ाते हुए भी बताया गया है. वो तो ये भी बोलती है महिषासुर को की, जबतक मैं ये ड्रिंक ख़तम करती हूँ तो गरज क्युकी मृत्यु तो तेरी निकट ही है।
ओह , क्या पावर ! मजा आ गया पढ़ के. संस्कृत में बोलती है देवी " गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिबाम्यहम "
उसके बाद वो उछलकर दैत्य पर सवार होती है और तलवार से मस्तक काट गिराती है.
दैत्यों में हाहाकार मचता है , देवी का स्तवन और गन्धर्व तथा अप्सराओ का नृत्य।
चतुर्थोध्यायः
चौथे अध्याय का नाम मार्कण्डेयपुराण में शक्रादिस्तुति भी कहा गया है. महिषासुर का वध हो चुका है , देवता नमन की मुद्रा में हैं और रोमांचित भी. वो देवी से कहते है की अब आप ही विश्व का पालन कीजिये, आप ही आश्रय है क्युकी आपमें रजो, तमो तथा सत्व तीनों गुण मौजूद हैं और किसी भी दोष से आपका संसर्ग नहीं है. ये वाला भाग पढ़ने के बाद मैं पतंजलि सूत्र के बारे में सोचने लगी जिसमे मैंने हाल ही में विस्तार में तीनों गुणों के बारे में पढ़ा है। और कैसे योग एक मार्ग है जो हमें सही बैलेंस बनाये रखने में मदद कर सकता है. तो जब हम देवी को सर्वगुण कहते है, तो वह इन्ही गुणों की बात है. लेकिन फिर सोचने लग गयी की कैसे हमारे नवीन समाज में गुणों को प्रदूषित कर दिया गया है. नारी का गुण उसके माधुर्य और अल्प भाषी होने में , बर्दाश्त करने इत्यादि जैसे लक्षणों से कैसे जोड़ा जा सकता है वही पुरुषो का कठोर होने, भावनाओं को नियत्रण में रखने तथा रोजी-रोटी जुगाड़ करने में?
समय के साथ हमने गुणों की परिभाषा ही बदल डाली क्या? सोचना पड़ेगा अभी और इस बात पर.
इस अध्याय में देवी को ज्ञानी, विश्व पालक, पीड़ा का नाश करने वाली, मेधावी तथा ऐश्वर्य से युक्त कहा गया है. उनके क्रोधित होने और प्रसन्न होने को बराबर उपयुक्त माना गया है. ये बात भी सोचने वाली है. समाज में हम ज्यादातर क्रोध को नेगटिव इमोशन की तरह देखते है , लेकिन क्रोध कई बार एक आवश्यक अनुभूति है जो हमें न्याय और सच के मार्ग पर अग्रसर करने की क्षमता रखती है. चाहे वह अन्याय हमारे साथ हो या किसी और के. क्रोध का सदैव विरोध कर अपने मन को मार कर सिर्फ प्रसन्न रहना, दोहरापन नहीं बनाता, झूठ नहीं है ये तो क्या है फिर? उपयुक्त जगह पर क्रोध और विरोध भी उतना ही महत्व रखते है जितना माधुर्य और वात्सल्य।
मैं चाहूंगी की मेरे पाठक इस अध्याय से यह अवश्य ग्रहण करे. यह अध्याय देवी के स्तुति, भक्ति और मंगल गान के साथ समाप्त होती है, साथ ही हिंट देती है की आगे हम शुम्भ और निशुम्भ के वध का वर्णन पढ़ेंगे.
पञ्चमोध्यायः
इसमें ऋषि बताते है शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरो के बारे में जो की अत्यंत उपद्रवी है और सूर्य चंद्र अग्नि वायु कुबेर यम वरुण इत्यादि को पराधीन कर चुके हैं. ऐसे में देवो की भगवती का स्मरण होता है, उन्हें अलग अलग नामों तथा विशेषणों से नमस्कार किया जाता है. इस अध्याय का दो तिहाई भाग मुझे रटा हुआ है , और अगर आप सबो ने कभी दुर्गा पूजा वगेरा में हिस्सा किया है तो " या देवी सर्व भूतेषु। .... नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः" ज़रूर सुना होगा। यह भाग किताब के अंत में "आठ तंत्रोक्तं देवीसूक्तम" के नाम से फिर दोहराया गया है.
यह भाग मुझे स्मरण भी है और अत्यंत प्रिय भी क्युकी इसमें कई सारे मानवीय गुणों की तुलना देवी के हमारे अंदर निहित होने की प्रकृति से की गयी है, साथ ही उसका नमन भी किया गया है बारम्बार।
कहा गया है की देवी सर्वत्र सौम्य रूप में, रूद्र रूप में, विष्णु रूप में, माया रूप में , चेतना रूप में , बुद्धि रूप में, निद्रा रूप में , भूख में, शक्ति में , तृष्णा में , जाति में , लज्जा में, कांति में, शांति में, श्रद्धा में , वृत्ति में , स्मृति स्मृति में, दया में , तुष्टि में , माँ में और यहाँ तक की भ्रान्ति अथवा कन्फ्यूज़न तक में मौजूद है. और यह आवशयक है की हम उसे इन सारे रूपों में नमन करे, और अपनाये।
इतने में गंगा स्नान कर भगवती प्रगट होती है और देवताओ से इस स्तुति का कारण भी पूछती है, जो देवता उन्हें बताते है.
चंड और मुंड को देवी का दर्शा होता है और वो ये खबर शुम्भ के देते है की इस मनोहर स्त्री को हमें हर लेना चाहिए। शुम्भ अपने दैत्य सुग्रीव को भेजता है की वो देवी को बातो से प्रसन्न करके साथ ले आये. दूत बना सुग्रीव, शुम्भ का बखान करता है और कहता है की उन्हें शीघ्र ही पत्नी बनने का प्रस्ताव ले लेना चाहिए। देवी मन ही मन मुस्काती है और शुरू होता है एक और पावर प्ले।
कहती है - "तुम्हारे दैत्य राज की शक्ति और क्षमता में मुझे कोई शक नहीं पर क्या करू अभिमानी और वचन से वद्ध हूँ , सिर्फ युद्ध में मुझसे जितने वाला ही मेरा स्वामी हो सकता है ".
दूत , देवी को घमंडी बुलाता है और स्त्री होने की क्षीणता भी याद दिलाता है.
देवी अपने वचनों पर अडिग अपनी शर्त को आदरपूर्वक दैत्य राज तक पहुँचाने को कहती है.
स्टेज सेट है, देखे क्या होता है अगले अध्याय में.
षष्ठोध्यायः
देवी का ये कॉन्फिडेंस दूत को असमंजस में डाल देता है, लेकिन फिर भी वो सबकुछ वापस जाकर बयां करता है. दैत्य राज कुपित , ज़ाहिर सी बात है. और भेज देता है धूम्रलोचन को सेना लेकर , देवी को पकड़ कर लाने या वध कर देने। साठहजार की सेना लेकर वह पहुँचता है देवी को ललकारने, धमकी देता है की झोंटा खींच कर ले जायेगा। देवी बड़े हिसाब से प्रत्युत्तर देती है और बस एक "हूँ" में ही उसका भष्म भी. सिंह और देवी ने मिलकर पूरी सेना का वहीँ विनाश कर दिया।
यह खबर शुम्भ को मिलती है और अब वो चंड और मुंड को भेजता है. उसे भी कहता है की बाल खींच कर ले आना उसे, न आये तो मार डालना।
इस "हूँ" शब्द पे मेरा ध्यान रुका थोड़े देर, आखिर कैसे हो सकती है एक शब्द में इतनी ताकत। और फिर ध्यान आया, चक्र बीज मंत्र का. योग के अनुसार मानव शरीर के प्राण सात मुख्यो चक्रो में प्रवाहित होते हैं, और इनको एक्टिव करने के अलग अलग बीज और स्वर मंत्र भी है.
"हूँ" बीज मंत्र ख़ास कंठ से निकलता है और पांचवे चक्र अथवा थाइरोइड ग्लैंड से रिलेटेड हैं. पांचवा चक्र है , क्रिएटिविटी और सेल्फ एक्सप्रेशन का. अपने आप को अपने रूप में अपनाना और अपने सत्य की जैसे का तैसे रखने की आजादी। क्या यही वो शक्ति थी जो देवी के तेज़ को इतना दिव्य कर देती है की असुर भष्म हो जाता है ?
हो सकता है न? अभूतपूर्व और अति उत्तम।
अब अगले अध्याय क्या होगा? सोचिये सोचिये?
सप्तमोध्यायः
भक्त मातंगी देवी का ध्यान करते हैं जो श्याम वर्ण की हैं और सिहासन पर बैठी तोते के शब्द सुन रही हैं. उनके पैर कमल पर, चाँद मस्तक पर , बिंदी भी है और लाल साड़ी तथा कसी हुयी चोली भी धारण है. ये "कसी हुयी चोली" वाला पार्ट हिंदी में लिखा है नीचे, मैंने संस्कृत में बड़ी छान बिन की लेकिन एक्साक्ट शब्द नहीं मिला. "रक्तवस्त्रा" कहा है बस, तो क्या ये ट्रांसलेशन वाले की अपनी स्ट्रेटेजी है ?
मुझे खुद ही संस्कृत का कुछ ज्यादा ज्ञान नहीं तो किसी और पे उंगली क्यों उठाऊँ , लेकिन अगर कोई इसका सच मुझे लाकर देने की कृपा करेंगे तो बहुत बहुत आभार होगा।
अब क्या करूँ , शक्की फेमिनिस्ट दिमाग है ऊपर से "कसी हुयी चोली" , कुछ जंच नहीं रहा मुझे।
उधर हम कसी हुयी चोली की बिवेचना में फंसे है , इधर चंड और मुंड चले आ रहे है चतुरंगी सेना लिए. देवी उन्हें आता देख मुस्कराती है , वो भी मंद मंद. दैत्य उन्हें पकड़ने की फिराक में हैं, और देवी ने अपना क्रोधित रूप धारण किया. जिसमे वो उतनी प्रिय नहीं लग रही है , बल्कि भयंकर लग रही हैं. नर मुंड की माला, शरीर का माँस गायब , जीभ बाहर और आंखे लाल. अब वो न सिर्फ ही वध कर रही है बल्कि कुछ का तो भक्षण भी वो भी दांतो से कुचल कर. यह हैं भयानक काली का रूप और सारे दैत्यों और उनकी सेना का सर्वनास. विकराल रूप लेकर (फिर) देवी "हं" का उच्चारण करती हुयी तलवार से चंड का सर कलम करती हुयी अट्टहास करती हैं. चंड जमीन पर गिरता है और मुंड भी दौड़ता है देवी की तरफ, और क्षण भर में वो भी बलि हो जाता है. दोनों के मस्तक लिए काली, देवी के समीप जाती है और अपना नया नाम चंडिका भी कहलाती है.
क्या लगता है , अगले अध्याय में कुछ शांति की उम्मीद है? नाह अभी तो कई सारे दैत्य और मारने पड़ेंगे। दुर्गाशप्तशती हो या आज की नारी, अपनी इस्मिता बचाने के लिए सिर्फ एक या दो के खात्मे से कहाँ काम चला है कभी.
तो जानते है अगले अध्याय में , अब कौन आने वाला है.
अष्टमोध्यायः
इस अध्याय में भक्त ध्यान करते हैं लाल शरीर वाली भवानी का जिनके नेत्रों में करुणा है और हाथो में हर तरह के अस्त्र।
अब हुआ यु की, इतनी जो तबाही मची है तो शुम्भ गुस्से में है और इसबार वो चांस लेना नहीं चाहता। वो सेना को ऑर्गनाइज़ करता है , अलग अलग बटालियन बुलाता है , उनके नंबर भी है. जी हाँ , मैं बात नहीं बना रही. पढ़ के देखिये। पचास कोटि कुल के सेनापति , सौ धौम्रा कुल के इत्यादि। इसमें बड़ा ड्रामेटिक सीन है , उधर सिंह दहाड़ रहा है उधर घंटे बज रहे तो कहीं धनुष की टंकार। दैत्य सेना ने घेर लिया है देवी और उनके सिंह को. और अब आता है इंटरेस्टिंग टर्न. देवी के अलग अलग रूप अपने अनुरूप अपने अलग अलग वाहनों के साथ आ रहे हैं लड़ने। ब्राह्मणी , जगदम्बिका , चंडिका , कोई गजराज पर, कोई बराह पर तो कोई भैंसे पर बैठी चली आ रही है। अनुपम, अति अनुपम दृश्य है. मेरा मन किया वीमेन पावर और यूनिटी का ये मोमेंट थोड़े देर और एन्जॉय करूँ। थोड़ा ध्यान कर लूँ और अगर किसी दिन हिम्मत हुयी तो पेंट भी कर डालूं एक कैनवास , वैसे काफी एम्बीसियस होगा ये प्रोजेक्ट।
देवी इन सारी शक्तियों से घिरी युद्ध का आवाहन करती हैं , फिर क्या एक एक करके भगवती के रूप संहार किये जाते हैं असुरो का और सेना त्राहि त्राहि करती है.
पर एक समस्या आ खड़ी होती है क्युकी इस सेना में है एक मायावी दैत्य "रक्तवीज" जी हाँ, इसके रक्त की हर बूँद एक नए रक्तबीज का जन्म हो जाता है. ये तो मल्टीप्लाई हो रहा है वायरस की तरह. इसका क्या करे देवी अब? लोकडाऊन तो डरने वाले करते है और वैसे भी भगवती को इम्युनिटी की प्रॉब्लम नहीं है कोई.
ऐन्द्री की गदा से उसका बहुत सारा खून गिरता है और ढेर सारे नए रक्तबीज खड़े हो जाते है. वैष्णवी के चक्र से भी एक्साक्ट सेम असर , कौमारी भी कोशिश करती है लेकिन अब देवो की चिंता बढ़ रही है. उनको आईडिया आता है , चंडिका के पास जाते हैं और कहते है अपना मुख फैलाओ।
चंडिका और काली मिलकर दैत्यों के न सिर्फ शरीर का भक्षण करती है बल्कि रक्त की हर बूँद को अपने मुख में ग्रहण भी. काली के मुख में गिरकर भी दैत्य जन्म ले रहे है , लेकिन उनका संहार उनके मुख में ही हो जाता है. अंततः रक्तहीन शरीर धरा पर गिरता है और मातृगण (भगवतीके हर रूप) मद मस्त नृत्य करती हैं.
वीभत्स , बहुत ही वीभत्स दृश्य है लेकिन और चारा भी क्या था। कई बार , विनाश ही एक रास्ता होता है नए सृजन का और आवश्यक है की हर बड़ी छोटी जीत को उतने ही उत्साह से अपनाया जाय. नियम है यह भी, प्रकृति का और देवी का सन्देश भी.
नवमोध्यायः एवम दशमोध्यायः
अब मैंने ये दोनों अध्याय मिला क्यों दिए ? ऐसे ही, थोड़ा चेंज हो जायेगा और इसलिए भी क्युकी इन दोनों अध्याय में एक एक करके निशुम्भ और शुम्भ मारे जाएंगे। अरे ! मैंने तो सस्पेंस ही ख़तम कर दिया। लेकिन आप लोग जो भक्त जान ये पढ़ रहे है , उनको पहले से ही पता है की अंत में ऐसा होने ही वाला है , है की नहीं ? तो मैंने कुछ नहीं बिगाड़ा, चलिए मैं खुद को ये कहकर अपना मन तो मन ही लेती हूँ.
इस अध्याय में पहले अर्धनारी रूप की देवी का ध्यान करते हुए , ऋषि आगे बढ़ते हैं. याद रहे , ये पूरी कहानी मेधा ऋषि अपने आश्रम में राजा और वैश्य को सुना रहे है.
तो, अब निशुम्भ बड़े गुस्से में हैं और प्रधान सेना की टुकड़ी लिए देवी पर हमला करता है. मुझे लगता है अबतक शुम्भ और निशुम्भ ने इस विध्वंसकारी देवी से विवाह की कल्पना तो त्याग ही दी होगी, पक्के से सोच रहे होंगे की कैसे ये बाला ख़तम हो. तो फिर क्या, वही बाणों की वर्षा , गदा , भाले, त्रिशूल और तलवारो का टकराना जारी है। एक दो बार देवी मुक्के भी चलाती हैं इसमें, "आयातं मुष्टिपातेन देवी " .
निशुम्भ के धरती पर गिरने की खबर आने से शुम्भ अम्बिका का वध करने बढ़ता है, जिसे देख देवी शंख बजाती है और अपनी धनुष का टंकार भी. ये होती है स्ट्रैटेजी , दुश्मन को अटैक से पहले ही अपनी ताकत का अंदेशा देना। मार तो कोई भी सकता है , लेकिन ये बता कर "की आओ, देख लुंगी" कमाल है बस. शुवदूती भी अट्टहास करती है , ये होती है कामरेडरी , एक दूसरे का साथ देना और उनकी हिम्मत बढ़ाना। जायज है, ये सब देख असुर थर्रा उठे. देवताओ ने भी साथ दिया और "जय हो" के निनाद से तीनो लोक गूंज उठे. यह होती है ताकर शब्दों की , सस्त्रो के चलने से पहले ही शत्रु का मनोबल गिराने की क्षमता का शानदार प्रदर्शन।
देखते देखते चंडिका शूल से शुम्भ को भी धरती पर गिराति है. लेकिन, इतने में निशुम्भ वापस उठ जाता है. चंडिका को "खड़ी रह" कहकर ललकारता है और उधर
वाराही , बैष्णवी , कौमारी , ऐन्द्री जहाँ असुरो के विनाश के इस युद्ध में डटी हुयी है, चंडिका निशुम्भ का अंत करती हैं.
दशम अध्याय में भगवती कामेश्वरी का ध्यान है जो सोने के वर्ण की हैं. कुपित शुम्भ देवी के सामने आकर बोलता है " दुष्ट दुर्गा, तुझे झूठे बल का अभिमान है , बड़ी मानिनी बनी हुयी है और दूसरी औरतों के भरोसे लड़ती है ".
देवी कहती है "दुष्ट , मैं अकेली ही हूँ और ये सारी जो तू देख रहा है ये मुझे अलग नहीं है "
बात दिल को छु गयी.
आजकल के सामज में कितनी औरते है जिनको कोई कह सकता है की "तुम दूसरी औरत का सहारा ले रही हो ". न, हमारे तो दिलो दिमाग में ठूस दिया गया की औरत ही एक दूसरे की दुश्मन है और इस भरोसे की नीब ही हिला दी गयी. फिर कोई राक्षश से कैसे जीते ? काश आज भी हर एक और ये कह पाए की "ये सब तो मेरे ही रूप हैं और हम एक दूसरे से अलग नहीं", मजाल है कोई दैत्य टिक पाए?
खैर.
देखते देखते सारे देवी के रूप एकाकार हो जाते हैं और देखने में अब वो अकेली खड़ी हैं. भयंकर युद्ध जिसमे देवी की छाती में शुम्भ का मुक्का भी लगता है और शुम्भ को देवी का थप्पड़. आकाश में बिना आधार के हुए जा रहा है युद्व और ऋषि मुनि तक विस्मित है ये सब देख कर. बड़े शंघर्ष के बाद देवी उसे पृथ्वी पर पटक अपने शूल से उसका संहार करती हैं. पूरा जगत इस खबर से प्रसन्न होता है , आकाश स्वच्छ होता है , नदियां मार्ग पर बहती है , हवा साफ़ हो जाती है और जैसा की आप जानते ही है , गंधर्व और अप्सराओ का नृत्य भी होता है.
सूर्य की प्रभा उत्तम हो उठती है।
"सुप्रभोभूद्विकारः"
एकदशोध्यायः
इसमें भक्तो को भुवनेश्वरी देवी का स्मरण कराया गया है जो सूर्य के सामान आभा वाली, मुस्कान लिए और उभरे स्तनों तथा तीन नेत्रों वाली है.
ऋषि कहते हैं, शुम्भ और निशुम्भ से त्रिलोको की मुक्ति के बाद देवता बड़े हर्ष में हैं और देवी कात्यायनी की स्तुति कर रहे हैं. कह रहे है की बस अब हमपर प्रसन्न हो जाओ , हम शरण में है तुम्हारे, तुम्ही जग की समस्त माया हो और पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति करा सकती हो. जगत की हर स्त्री तुम्हारी मूर्ति है और हमारे पास शब्द नहीं की तुम्हारी स्तुति कर सके.
इस अध्याय में कई सारे पार्ट हैं जो मुझे रटे हुए थे , शायद आपने भी सुन रखे होंगे.
"देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद , प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य"
"सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके, शरण्ये त्रयंबके गौरी नारायणी नमोस्तु ते "
तरह तरह के उपमाओं के साथ , आभूषणों और अंगो की व्याख्या के साथ बड़े ही डिटेल में देवी के विभिन्न रूपों की प्रार्थना और विनय की प्रार्थना ही है लगभर सार, इस अध्याय का. इतना महायुद्ध जिस देवी ने स्वयं लड़ा हो और साबित कर दिया हो की वो कर सकती हैं , तो वंदना अर्चना स्वाभाविक ही है. संस्कृत के बड़े की पावरफुल लिरिकल पंक्तिबद्ध शब्दों में अलंकृत ये ग्रन्थ अवश्य ही एक बहुमूल्य जेवरात है.
देवी को अंधकारमय अज्ञानता से बाहर निकालने का मार्ग कहा गया है, लक्ष्मी, सरस्वती, विश्वेश्वरि अदि कई नामो से आदर दिया गया है.
अंततः होकर कह भी देती है की जो इच्छा हो वह वर मांग लो और अगर वह संसार के उपयुक्त हुआ तो अवश्य प्रदान करेंगी.
देवता उनसे भविष्य में भी दैत्यों से मुक्ति की कामना करते है, काफी उपयुक्त दरख्वास्त।
देवी वादा करती हैं की वो कभी यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर , तो कभी पृथ्वी पर जन्म लेकर वैप्रचित्त नामक दैत्य , तो कई अन्य दैत्यों का नाश करती रहेंगी. साथ ही ये भी बताती है की इस संहारो की वजह से उन्हें रक्तदन्तिका , शताक्षी , शाकम्भरी , भीमादेवी, भारमरी और भी कई नामो से जाना जायेगा।
अब अगर आपको यह जानने की बड़ी उत्कंठा है की ये सारे नाम उन्हें कब और क्यों मिलेंगे तो दिर्गाशप्तशती ज़रूर पढ़िए। मेरा कार्य सिर्फ विश्लेषण है, ट्रांसलेशन नहीं।
द्वादशोध्यायः
इसमें भक्तो को दुर्गा देवी का ध्यान करने को कहा गया है, जो की बिजली के समान अंगो वाली हैं और सिंह के कंधे पर बैठी हैं. उनकी सेवा में कई कन्याये कड़ी है और उनके हाथो में सभी अश्त्र है. पढ़कर एकदम कोलकाता के पंडाल की दुर्गा का स्मरण हो गया मुझे और घर की याद भी आने लगी. पिछले साल पूजा में घर गयी थी , जीवन के सबसे सुखद अनुभवों में एक था, परिवार के सदस्यों के साथ कोलकाता में दुर्गा पूजा वो भी बरसो के बाद. वो माहौल, उत्साह और दुनिया के किसी कोने में वैसे बनाया ही नया जा सकता। ढोल और ढाक की न रुकने वाली आवाज, शंख और घंटियों की ध्वनि, अगरबत्ती और धुनकी का नशा और कला का केंद्र बना हुआ सारा का सारा शहर. ओह. किसी और दुनिया में खो सी जाती हूँ जब सोचती हूँ.
खैर, वापस आते है हमारे बारहवे अध्याय में. इस किताब में कुल तरह अध्याय है , बाद में कुछ और भी हिस्से हैं, मैं उनका भी विश्लेषण लिखूंगी।
तो, दुर्गा देवी कहती हैं की अगर एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन मेरा ध्यान करोगे तो मैं निश्चय ही हर बाधा दूर करुँगी. साथ में एकबार फिर पिछले अध्याय में मृत्यु को प्राप्त होते दैत्यों का नाम आता है, और अष्टमी चतुर्दशी और नवमी के दिन पाठ करने की याद दिलाना. ऐसा करने से लोगो को पाप नहीं छूएगा न ही शत्रु, लुटेरे , राजा, शस्त्र , अग्नि या जल बिगाड़ पायेगा. महात्मय को पढ़ना, बलि , होम , वार्षिक पूजा इत्यादि में सम्पूर्ण श्रवण और पाठ से देवी प्रसन्न होती है. धन धान्य तथा पुत्र कोई संदेह न होगा और हर पीड़ा का नाश होगा, सो अलग.
पूजा की पद्धति, सामग्री और ब्राह्मण भोजन की भी चर्चा की गयी है, साथ में इसके होने वाले फायदे भी.
यह सब देवी खुद बताकर अंतर्धान हो जाती है, ऐसा ऋषि कहते हैं.
त्रयोदशोध्यायः
इसमें शिवा देवी का प्रसंग है , जिनके कांति सूर्य जैसी है, चार भुजाये हैं और तीन नेत्र।
ऋषि कहते हैं की देवी विद्या उत्पन्न करती है और सारे विश्व को महामाया बनकर मोहित करती है. राजा को उनकी शरण में जाना चाहिए भोग , स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए.
ये सब सुनकर, राजा नदी के तट पर बैठ देवी की तपस्या का मन बना लेते हैं. मिट्टी से मूर्ति बनाते है , पुष्प , धुप इत्यादि जलाते है और आहार कम करते करते पूरा निराहार कठिन तप शुरू करते हैं. अभी तक कई अध्यायों में "एकाग्रचित" होने की बात बार बार कही गयी है, मेडिटेशन और ध्यान को उपासना का एक आवश्यक माध्यम बताया गया है. राजा और वैश्य दोनों ही अपना रक्त भी देवी को चढाते हैं और तीन वर्ष तक नियमित उपासना करते है, तब जाकर कही चंडिका प्रसन्न होती है और प्रकट होती हैं. कहती है बताओ क्या चाहिए?
राजा अपना न नष्ट होने वाला राज्य तथा शत्रुओ का नाश मांगते है , जबकि वैश्य ममता और अहिंसा रहित जीवन।
देवी दोनों को उनके मनोवाञ्छित वर देकर अंतर्धान हो जाती है.
इसमें एक बात थोड़ी सोचने वाले लगी की राजा ने कठोर तप किया अपना सबकुछ न्योछावर करके तो किस लिए? किसी और के विनाश के लिए और अपने सुख समृद्धि की प्राप्ति के लिए ?
क्या इसीलिए की राजा के जीवन का वही धर्म है ?
राजा कितना भी उदार और स्वार्थ रहित हो, उसके लिए उचित है की वो युद्ध करे और जिस भी प्रजा ने उसमे विश्वास किया है उसकी सुरक्षा तथा पालन भी?
क्या ये सारे रूल आज भी कायम माने जायेंगे?
क्या हम आप सबके धर्म अलग अलग है?
और हमारे अपने अपने धर्म और कर्म के पालन में ही हमारा मोक्ष है?
तेरहवां अध्याय ख़तम हुआ और साथ ही कई सारे सवाल भी उठ खड़े हुए. जिनके जवाब कभी भी सीधे सीधे नहीं हो सकते। शायद इसीलिए न तो ये माहात्म्य यहाँ ख़तम होना और न ही मेरे और जानकारियां हासिल करने की उत्कंठा।
अध्याय ख़तम होने के बाद नवार्ण जाप के कुछ मंत्र दिए गए हैं. ये भी छोटी छोटी कवितायें हैं विष्णु , गणेश , ब्रह्मा, अग्नि , इत्यादि के आह्वान के साथ ह्रदय, नेत्र, शिखा , मुख सब कुछ को स्मरण करने के लिए। ये सब कुछ सीधे सीधे योगिक प्रैक्टिस का ही हिस्सा हैं , जिसमें हम अपने बाहरी शरीर के साथ साथ काल्पनिक धारणाओं को अपनाकर , अपने अंतर्मन में प्रवेश करते हैं. ध्यान के बहुत सारे मंत्र बताये गए है और मैं मान सकती हूँ की सब के सब उच्चकोटि के काव्य संकलन है. जितना ध्यान तुकबंदियों का रखा गया है, उतनी ही उपयुक्त ध्वनियों का संकलन. बीज मंत्र के उपयोग से इस तन्मयता से ध्यान करना , किसी के लिए भी बहुत ही लाभकारी हो सकता है. और वो भी , जब इतने सारे फायदे और भूमिकाओं के साथ परोसा जाए तो मन पहले से ही तैयार होता है. किसी भी तरह के ध्यान का असर इंसान के शरीर एवम मष्तिष्क पर तभी होता है जब आपका दिमाग साफ़ हो और एकचित्त। मंत्र एक बहुत ही अनूठा तरीका है , दिमाग को लगातार होने वाले खयालो की बमबारी से निकाल कर शांत करने
अपने आप को ,अपने विचारो तथा अपने सारे दुःख तकलीफों को भी देवी को समर्पण करके ध्यान करने की बारम्बार चर्चा की गयी है। ये भावना कदाचित इस ग्रन्थ के हिसाब से देवी के लिए जरूरी है , लेकिन योग के हिसाब से ध्यान के लिए कोई भी वस्तु उचित हो सकती है। एक पेड़ , एक पत्थर और लाखों मील बैठा एक सितारा भी. तभी तो वेदों में हर तरह की चीज़ो का उल्लेख भगवान के रूप में किया गया है , असल में भगवान् कर वो वस्तु है जिसके लिए आप समर्पण की भावना उपजा सके और एकाग्रचित्त हो सके.
मीरा के लिए वह कृष्ण की मूरत थी तो सिद्धार्थ के लिए बोधि का पेड़.
आप चाहे तो ठीक वही स्थान भगवती त्रिनेत्रा दुर्गा को दे सकते हैं, और यह ग्रन्थ आपको ठीक वही करने के लिए कई सारे उपाय भी बताती है.
इसके बाद, देवीसूक्तम है जो शायद ऋग्वेद से लिया गया है. सिंहवाहिनी की पूरी छवि को एकबार फिर से आँखों के सामने प्रकट कर दे, ऐसी प्रभावशाली पंक्तियों से भक्त का ध्यान केंद्रित किया गया है. बाद में वही सब कुछ , की देवी कैसे सारी दुनिया को चलाती हैं और सब कुछ कर सकने की क्षमता रखती है.
फिर तांत्रिक देवीसूक्तम है, ये हिस्सा हम पहले पढ़ चुके हैं. जी हाँ वही , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः.
इस पोथी में देवी के तीन रहस्यों की व्याख्या है , प्रधानिक , वैकृतिक और मूर्ति। तीनो को परम गोपनियीय कहते हुए, ऋषि बड़े ही साफ़ साफ़ शब्दों में ये सारे रहस्य बताते है। मुझे तो लगता है गोपनीयता की बात सिर्फ पाठको का ध्यान खींचने के लिए बोला गया है. कैसे हमारी नानी दादी जब कुछ नया सुनाती थी तो पहले तो बड़ी न नुकुर और बाद में बोलने के पहले ही भूमिका की "ये बात तो ऐसी है , की मैंने किसी को आजतक नहीं कही, चलो तुमको बता देती हूँ क्युकी तुम मुझे बड़े प्यारे हो ". ठीक वैसा ही कुछ लगता है इन रहस्यों की श्रंखला के पीछे। वैसे भी , इतनी ड्रामेटिक थ्रिलर अभी अभी ख़तम कोई है , पाठक आगे पढ़े उसके लिए थोड़ा बहुत तो हुक रखना पड़ेगा न लेखक को.
अब जब लेखक ने इतनी मेहनत की है तो ये रहस्य मैं कैसे खोल दूँ ?
अच्छा थोड़ा सा बता देती हूँ. इसमें देवी की उत्पत्ति , उनके अनगिनत रूपों की उत्पत्ति तथा सबके गुणों और लक्षणों की व्याख्या है वो भी डायग्राम के साथ. मूर्ति रहस्य ख़ास कर काफी विसुअल है और देवी के रूपों की व्याख्या में नए एंगल और सामग्रियों को भी शामिल किया है. कुल मिलाकर , सारे सेंसेस इनगेज़ करने की भरषक कोशिस और अभूतपूर्व सफलता।
क्षमा प्रार्थना , ये भी मुझे रटा हुआ है. बचपन से ही सुना हुआ है और जब से होश सम्हाला पढ़ती आयी हूँ. मन के हर कोने में भरा था की कुछ भी कर लो , पूजा में मेरे कमी रह ही जायेगी इसीलिए क्षमा प्रार्थना और देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम अच्छे से मन लगाकर पढ़ लिया करती थी. आज अच्छा लग रहा है सोचकर , वर्ण जिस तरह से मैंने पिछले एक महीने में इस पुस्तक को कब और कहाँ कहाँ नहीं पढ़ा , पद्धति की एक भी बात नहीं मानी , अब तो देवी रुष्ट हुयी तो मेरे पढ़े श्लोक ही कुछ कर सकते हैं.
शायद इसीलिए अभी भी लिखे जा रही हूँ.
क्युकी "कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति" .
देवी ने अपने मुख से एक और गोपनीय और दुर्लभ मंत्र दिया है "दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला" में. जी हैं, इसमें जो ३२ नाम हैं , इसके पाठ से निःसंदेह हर शत्रु, भय और कष्ट का निवारण हो जायेगा. लेखक के हिसाब से, ऐसा देवी स्वयं कहती है और अंतर्धान हो जाती है.
सिद्धकुंजिकास्त्रोतम , एक उच्चकोटि की रचना है जिसमे बीज मंत्रो का बहुत ही अच्छा प्रयोग किया गया है. वैसे तो इसका अर्थ भी, देवी की महिमागायन ही है लेकिन स्टाइल बाकी किताब के मंत्रो से थोड़ा सा हैट कर है. इसे मैंने पहले तो मन ही मन पढ़ा एक दो बार , फिर बाद में बोल कर. और इन शब्दों का ज़रूर ही खासा असर होता है आपके चारो और प्रवाहित होने वाली प्राण वायु पर. कभी कोशिश कर के देखे।
ये क्या , मैं तो पुस्तक की वकील ही बन गयी।
अंत में हैं ३० और मंत्र , साधना और मनन के लिए. मंत्रो का उत्तम कैटलॉग।
और बिलकुल अंत में दो बिलकुल सहज भाषा में आरती दी गयी है. सोचने वाली बात है की जहां बाकि पूरी किताब टॉप ग्रेड संस्कृत में है जो की किसी प्रकांड पंडित का ही लिखा हो सकता है, वहां पर ये दोनों आरती देवी और अम्बा की इतनी सराह हिंदी में , कुछ चिपकायी हुयी सी लगती है. लेकिन ये बात शायद मैं कभी जान नहीं पाऊँगी।
और क्या सब कुछ जान लेना हमेशा जरुरी होता है ?
क्यों हम मनुष्य कुछ चीजों को ठीक वैसी ही ग्रहण नहीं कर लेते जैसी वो हमारे सामने रख दी गयी है ? जैसी वो हमारे मन को प्रतीत हो रही है ? क्यों जरुरी हो जाता है , उसकी छान बीन कर लेना? दस जगह से पता करके , उसको हज़ार लोग से मनवाने की भी कोशिश करना ? क्यों ?
क्यू नहीं हम अपने मन को टटोल कर जान लेते हैं की आखिर हमारी आत्मा के अंदर क्या है ?
किस मिट्टी की महक और किस कोयल की चहक से खिल उठता है हमारा मन ? क्युकी ये अनुभूतियाँ ही तो वो खिड़की दरवाजे हैं जिनसे होकर हम स्वयं को स्वयं से मिला सकते है. और जब आत्मा को पहचान ले , तो परमात्मा से मिलन और मोक्ष कुछ दूर नहीं होता।
इसी के साथ मैं यह श्रंखला समाप्त कर रही हूँ, पर छोड़ देना चाहती हूँ आपको कुछ ऐसे सवालो के साथ जो शायद आपको भी खुद से और अपनी आत्मा के सत्य से अवगत करा सके किसी दिन.
इस श्रंखला को पढ़ते हुए अगर आपको किसी भी समय ऐसा लगा हो की मैंने किसी भी तरह से हिन्दू धर्म के श्रद्धा और भक्ति की अवहेलना की है, तो क्षमा प्रार्थी हूँ. मेरा उद्देश्य तो बस इस किताब को पूजा शेल्फ से निकाल कर हर टेबल लैंप के नीचे तथा योग मैट तक ले आना था. कोशिश सफल रही या नहीं वो तो पता नहीं पर मेरे लिए इतना यथेष्ठ है की मैंने कोशिश की और अंत तक निभा सकी.
मैं नहीं जानती वह विदा था या मेरा पलायन।आज तक ये उधेड़ बुन चलती रहती है मन में , लेकिन हर साल दुर्गा पूजा में मैं पुस्तक का पाठ ज़रूर करती आयी हूँ. काफी हिस्से तो रटे हुए हैं, कुछ माँ की आवाज़ में आज भी कानो में गूंजते है और कुछ मन के यदा कदा कोनों में अनायास ही.
अनगिनत किये जाने वाले एकांत के क्रिया कलापों में से एक ये भी है, प्रार्थना.
किताब पर अगरबत्ती, मोम और दिए के धुँए की परत अब बैठ सी गयी है.
जीवन के इस मोड़ पर, जब कई सवाल मुँह बाकर खड़े हो गए मेरे सामने, कुछ न सुझा तो मैंने फिर से अध्यात्म का सहारा लिया. सरस्वती का थोड़ा बहुत आशीर्वाद रहा ही है, सोचा अगर कुछ कृपा भगवती की भी हो जाए तो कुछ न कुछ करके मैं पास हो जाउंगी इस इम्तेहान में भी.
मरता क्या न करता, एक आध रूल और तोड़े. अब बिना खाये, नहाकर , दिए जलाकर ही किताब खोली जाए ऐसा कहाँ लिखा है? वैसे भी अब ये किताब मैं सिर्फ अध्यात्म और भक्ति नहीं पर रीसर्च और रेलेवेंस के लिए पढ़ना चाह रही थी. आखिर जीवन का इतना समय अगर मैंने इसपर आँख मूँद कर विश्वास किया है, कुछ तो बात होगी? लेकिन क्या ? वही पता लगाना था.
तो क्या, शाम में नोटबुक , पेन, लैपटॉप और रेड वाइन की गिलास के साथ मैंने अपनी पढ़ाई शुरू की. अगर मेरे रेड वाइन गिलास से आप को आपत्ति हो रही है , तो अभी के अभी यही पढ़ना बंद कर सकते हैं. क्युकी, मैं गारंटी के साथ कह सकती हूँ की आपको आगे पढ़कर वो सब कुछ नहीं मिलने वाला जो आजतक आप "परिवर्तन रहित" और "सुरक्षित" जीवन की परिकल्पनाओं में पाना चाहते हैं.
ठीक?
तो शुरू करें?
ॐ नमश्चण्डिकायै।
सबसे पहले आता है स्वयं महादेव शिव के शब्दों में देवी की आराधना और महिमा का गुणगान, जैसे की "सर्वकार्यविधायिनी" और "दारिद्रय दुख भय हरिणी".
चराचर के मंगल कामना और रोग भय से मुक्ति के लिए, नारायणी नमोस्तुते कहते हैं शिव और ये है सप्तश्लोकी दुर्गा का सार.
उसके बाद शुरू होता है "श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्त्रोतम".
आम भाषा में , दुर्गा के १०८ नाम जिनके श्रवण से भगवती प्रसन्न हो जाती है और फिर तीनो लोको में कुछ भी असाध्य नहीं होता. धन, संपत्ति, धान्य , पुत्र, स्त्री , घोडा, हाथी , धर्म और अंत में सनातन मुक्ति भी. पुरुष वर्ग का कई बार उल्लेख और यहाँ पे मेरी सुई जरा सी अटकी. फिर से पढ़ा मैंने, कन्फर्म करने को. गिलास फि रिफिल किया एक बार उठकर। एक बात क्लियर थी, इसको पढ़ने का प्रिस्क्रिप्शन बिलकुल ही साफ़ सब्दो में पुरुषो के लिए थी, क्युकी स्त्री की आकांक्षा रखने वाली महिलाओ का प्रसंग तो ये हो नहीं सकता. साथ ही, पुत्रियों की प्राप्ति का भी कुछ विश्लेषण नहीं मिला इसमें.
बातो को नोट करके, मैंने अगला चैप्टर शुरू किया.
तो अगला है, देवी कवचम। कवच मतलब शील्ड, प्रोटेक्शन. काफी इंटरेस्ट से मैंने भी पढ़ना शूरु किया , वैसे भी माँ ने हमेशा कहा है कुछ और पढ़ो या न पढ़ो कवच और १-२ चीज़े ज़रूर पढ़ लेना। माँ की यही बात बहुत पसंद आती है मुझे, हमेशा कुछ न कुछ उपाय बता देगी.
बुखार है ? ये कर लो.
दर्द है? वो कर लो.
समय का अभाव है ? तो इतना ही कर लो.
बड़ी एकमोडेटिंग जिंदगी का पाठ पढ़ाया है हमेशा। अब ये हुआ मेरे जननी की व्याख्या, वापस जगत जननी पे फोकस करते हैं.
तो कवच में कुछ ऐसा कहा गया है की , जो मनुष्य आग में जल रहा हो , रणभूमि में शत्रुओ के बीच घिरा हो , विषम संकट में हो और भय से आतुर हो. इसका पाठ करते ही शोक, भय और दुःख से मुक्त हो जायेगा। देवी के कई सारे रूप इसमें बखान किये गए है. हरेक रूप में वह क्रोध से भरी , सौंदर्य से रिक्त , अस्त्र और शस्त्र से युक्त सिर्फ और सिर्फ भक्तो के रक्षा के दृढ उद्देश्य को लिए हुए दृष्ट होती है.
इसमें दुर्गा के अलग अलग रूप , अलग अलग अंगो को सुरक्षा करते कहे गए हैं. जिसमे लिंग , वीर्य, पुत्र और पत्नी की रक्षा का भी उल्लेख है.
ये वाला पार्ट मैंने दो बार पढ़ा, एक बार और पढ़ा. फिर लिखा, फिर से पढ़ा. क्युकी , मैं ढूंढ रही थी मेरे रेलेवंस का माध्यम.
नहीं मिला. न.
योनि या पुत्री के सुरक्षा के लिए भगवती के किसी स्वरुप को न ढूंढ पायी मैं. अब पति तो स्वयं पुरुष होने की वजह से, ऐसे ही सुरक्षित हो गए होंगे अबतक. नहीं?
कवच के पाठ से हर अभीष्ट वस्तु की कामना पूर्ण होती है, विजय की भी प्राप्ति होती है, पुरुष तुलना रहित और महँ ऐश्वर्य का भागी होता है. वो युद्ध में भी पराजित नहीं हो सकता, तीनो लोको में पूजनीय और हर बीमारी से मुक्त हो जाता है.
अन्ततः , कनेर , भांग , धतूरा यहाँ तक की सांप, बिच्छू जैसे बिष और रसायन आदि के प्रभाव से मुक्त हो जाता है.
ये तो कमाल हो गया. तो भांग या धतूरे के व्यसन में कोई बाधा नहीं है, अगर आपके पास देवी के कवच की सुरक्षा हो? परन्तु , सबसे पहले आपका पुरुष होना जरुरी है.
कुछ समझ आया, कुछ नहीं भी आया। जी में आया अभी तुरंत माँ को फ़ोन करके पूछ डालूँ। लेकिन देश में देर हो चली थी और अभी भी डर था किसी कोने में , मेरी बहस सुन कर कही मेरी ही माँ मुझे से धर्म से च्युत न समझ डाले।
इसीलिए भावनाओं को लिख कर साझा कर रही हूँ , और आगे बढ़ते हैं.
अर्गलास्त्रोतम
इसमें कई सारे तरीकों में देवी की विनती की गयी है और कई बार, माँगा गया है देवी से "रूप, जय और यश", साथ में "काम क्रोश और शत्रुओं का नाश" भी. अब, काम क्रोध तो समझ में आता है की, बुरी चीज़े है और चलो भगवती वो सब मन से ख़तम कर दे तो अच्छा लेकिन, रूप, जय और यश ? ये सब तो बाहरी दिखावे की बाते है, नहीं?
ये सब स्वार्थ और माया पूर्ण वस्तुओं के लिए मैं क्यों जगत जननी का समय व्यर्थ करू? साथ ही, जहाँ तक शत्रुओं का सवाल है , वो किसी का मित्र भी तो है? मेरे किसी से शत्रुता होने से, मैं उसकी विनाश कामना कर डालूं और साथ ही देवी जैसे सुपर पावर को सम्मन भी भेज दूँ? ये कहाँ का न्याय है? ऊपर से , मेरे शत्रुओं से मुझे स्वयं नहीं लड़ना चाहिए? विजय या पराजय की चिंता को ताक पर रखकर। या मैं, विनती करती रहूँ देवी से तबतक जबतक वो उसका विनाश नहीं कर देती हैं?
थोड़ा सा कन्फुसिंग था , लेकिन तभी आता है स्त्री का विषय एक बार फिर.
इसमें ये भी कामना की गयी है की, मन की इच्छानुसार चलने वाली मनोहर पत्नी का वरदान प्रदान कीया जाये जो दुर्गम संसार से तारने वाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुयी हो.
अब ये क्या है यार? ये उत्तम और नीच कुल कौन डिसाइड करेगा? ऊपर से मनोहर पत्नी, वो क्या है? और क्यों चले मन के इच्छानुसार? कभी कभी नहीं भी तो चल सकती है फिर? देवी से प्रार्थना करोगे की वापस लेलो इसको? संभव है क्या की कोई हमेशा इच्छानुसार चले और मन को मनोहर लगे?
ये सब स्वार्थ और माया पूर्ण वस्तुओं के लिए मैं क्यों जगत जननी का समय व्यर्थ करू? साथ ही, जहाँ तक शत्रुओं का सवाल है , वो किसी का मित्र भी तो है? मेरे किसी से शत्रुता होने से, मैं उसकी विनाश कामना कर डालूं और साथ ही देवी जैसे सुपर पावर को सम्मन भी भेज दूँ? ये कहाँ का न्याय है? ऊपर से , मेरे शत्रुओं से मुझे स्वयं नहीं लड़ना चाहिए? विजय या पराजय की चिंता को ताक पर रखकर। या मैं, विनती करती रहूँ देवी से तबतक जबतक वो उसका विनाश नहीं कर देती हैं?
थोड़ा सा कन्फुसिंग था , लेकिन तभी आता है स्त्री का विषय एक बार फिर.
इसमें ये भी कामना की गयी है की, मन की इच्छानुसार चलने वाली मनोहर पत्नी का वरदान प्रदान कीया जाये जो दुर्गम संसार से तारने वाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुयी हो.
अब ये क्या है यार? ये उत्तम और नीच कुल कौन डिसाइड करेगा? ऊपर से मनोहर पत्नी, वो क्या है? और क्यों चले मन के इच्छानुसार? कभी कभी नहीं भी तो चल सकती है फिर? देवी से प्रार्थना करोगे की वापस लेलो इसको? संभव है क्या की कोई हमेशा इच्छानुसार चले और मन को मनोहर लगे?
खैर.
अंत में एकबार फिर से संपत्ति की मांग है देवी से.
उसके बाद आता है "अथ कीलकम" , मजे की बात है की इसमें ये बताया गए है की इसके इतने गूढ़ प्रभाव हैं की कोई भी इसको मिसयूज न करे इसलिए महादेव ने गुप्त कर दिया था. लेकिन अब ये आपके सामने है, तो बस पढ़िए और लाभ उठाईये. इसमें भी एकबार फिर स्ति का उल्लेख आता है की, कैसे स्त्रियों में होने वाले हर शौभाग्यादि वाले लक्षण देवी का प्रसाद है.
रात्रिसूक्तम का अध्याय बहुत ही शीतल और सबकुछ को जैसे एक साथ ले आने वाला अध्याय लगा. इसमें वर्णन है रात्रि का, एक देवी के रूप में जो सम्पूर्ण मानव जाती, पशु , पक्षियों को आनंद और शांति देती है.
श्रीदेव्यथर्वशीर्षम & अथनवार्णविधीः
अब तक भूमिका थी और अभी भी भूमिका ही चल रही है, लेकिन एंगल यक़ीनन थोड़ा थोड़ा शिफ्ट हो रहा है. इस हिस्से में, सभी देवता देवी के समीप जाते हैं और उनसे उनका परिचय पूछते हैं. देवी प्रत्युत्तर में कहती हैं की वह स्वयं ब्रह्म हैं और उन्होंने ही प्रकृति पुरुष और जगत को जन्म दिया है. वही आनंद हैं , ज्ञान हैं, विज्ञान हैं , ब्रह्म है , अब्रह्म हैं, पंचीकृत , महाभूत , वेद, अवेद , विद्या, अविद्या , निचे ऊपर, अगल बगल , रूद्र, वसु, मित्र, वरुण, इंद्रा, अग्नि। .... इत्यादि.
कुल मिल के, सब कुछ जो आप कल्पना कर सकते है और नहीं भी कर सकते है वो देवी का रूप है. इनके परे कुछ भी नहीं।
कुल मिल के, सब कुछ जो आप कल्पना कर सकते है और नहीं भी कर सकते है वो देवी का रूप है. इनके परे कुछ भी नहीं।
देवगण ध्यान मग्न होकर या सारा विवरण देवी से सुन रहे हैं, कई बार प्रणाम भी करते हैं , क्युकी वो शोको का नाश कर सकती है और असुरों का विनाश भी. साथ ही देव विनय भी कर रहे हैं की माता हमारी रक्षा करो.
देवी को जहाँ महासंकट का नाशक कहा गया है, वही पर करुणा की साक्षात् मूर्ति भी कह रहे हैं.
अंत में , बहुत ही प्रेस्क्रिप्टिव तरीके से कहा गया है की अगर ये पाठ शाम में किया जाय तो दिन के पाप ख़तम हो जायेंगे और प्रातःकाल में करने से रात के। मैं तो भरी दोपहरी में पढ़ रही हूँ, वो भी भक्त नहीं बल्कि एक एनालिस्ट की तरह , क्या होगा मेरा ?
अरे हाँ, इसमें गिनती भी बताई गयी है. अगर कोई दस बार पढ़े तो उसी क्षण पापो से मुक्ति और १०८ बार पढ़ ली तो सिद्धि की प्राप्ति. मैंने अभी २-३ बार पढ़ तो लिया इसे, कुछ तो मेरे पाप भी काम होने चाहिए. लेकिन ये भी सोच रही हूँ की, कौन से वाले पाप घटे ये कैसे पता चलेगा. फिलहाल तो , मैं जो इस धर्मग्रन्थ के विश्लेषण का पाप कर रही हूँ अगर वही मैनेज हो जाये तो काफी होगा.
देवी को जहाँ महासंकट का नाशक कहा गया है, वही पर करुणा की साक्षात् मूर्ति भी कह रहे हैं.
अंत में , बहुत ही प्रेस्क्रिप्टिव तरीके से कहा गया है की अगर ये पाठ शाम में किया जाय तो दिन के पाप ख़तम हो जायेंगे और प्रातःकाल में करने से रात के। मैं तो भरी दोपहरी में पढ़ रही हूँ, वो भी भक्त नहीं बल्कि एक एनालिस्ट की तरह , क्या होगा मेरा ?
अरे हाँ, इसमें गिनती भी बताई गयी है. अगर कोई दस बार पढ़े तो उसी क्षण पापो से मुक्ति और १०८ बार पढ़ ली तो सिद्धि की प्राप्ति. मैंने अभी २-३ बार पढ़ तो लिया इसे, कुछ तो मेरे पाप भी काम होने चाहिए. लेकिन ये भी सोच रही हूँ की, कौन से वाले पाप घटे ये कैसे पता चलेगा. फिलहाल तो , मैं जो इस धर्मग्रन्थ के विश्लेषण का पाप कर रही हूँ अगर वही मैनेज हो जाये तो काफी होगा.
हे भगवती क्षमा करे.
अथनवार्णविधीः
मंत्र, जल चढ़ाना और विभिन्न अंगो को छू कर ध्यान की प्रक्रिया का अति उत्तम उल्लेख, काफी इंटरेस्टिंग लगा ये पाठ. सर , मुख , ह्रदय, गुदा, चरण और नाभि , हर अंग के लिए दिए गए हैं मंत्र। ये वाला पार्ट जगा गया मेरे अंदर के योगी को. अच्छा लगा, सीखने को मिली मैडिटेशन की एक नयी, थोड़ी जटिल पर उत्तम टेक्निक। इसमें मन्त्रों के साथ योग और ध्यान का बहुत ही अच्छा मिश्रण परोसा गया है. बाद में , भले ही फिर से एक पूरा पैराग्राफ लिखा गया है फायदे , पापो का नाश वगेरा वगेरा , मुझे इसमें ही बड़ी तसल्ली हुयी.
शायद किसी दिन इसे आजमाऊँगी मेरे योग प्रैक्टिस में.
शायद किसी दिन इसे आजमाऊँगी मेरे योग प्रैक्टिस में.
हर अंग के मंत्रो के बाद , एक मूल मन्त्र भी बताया गया है १०८ बार जाप करने के लिए. बड़ा ही रोचक है , इस मैडिटेशन में दिए गए विसुअल. संस्कृत शब्दों के उच्चारण और ध्यान का सहज संगम , जो सभी प्रैक्टिस में ला सकते हैं. जिन अंगो की इसमें बात की गयी है, सभी ऊर्जा के पॉइंट्स हैं और स्त्री पुरुष में कोई भेद नहीं करते.
इस हिस्से में आकर लगा, जैसे पहली बार कुछ बहुत ही काम का हाथ लगा है. मेरी तो लाटरी लग गयी, क्या पढ़ रही थी मैं आजतक?
मन किया अभी माँ को फ़ोन करके बोलूं, की कवच को मारो गोली और पेज ५५ -५७ में दिए गए ध्यान का पाठ करके देखो. शयद तुम्हे महसूस हो जाये वो शक्ति जो कुदरत ने हम सब को बराबर सौंपी है और हम सब अनजान है उससे.
ॐ ऐ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
बहुत हु अद्भुत तकनीक , मंत्र और ध्यान के कॉम्बिनेशन की.
ये हुई न बात.
बहुत ही अच्छे और सटीक मोड़ पर ख़तम होती है भूमिका और अब आ रहा है "प्रथमोध्याय"
ये अध्याय मधु कैटभ वध का प्रसंग है. अध्याय के शुरू में सूर्य पुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है.
सुरथ नाम में एक धर्मपालक राजा का द्वेष कोला विध्वंशी क्षात्रियों से हो जाता है जिनसे वो पराजित भी हो जाते हैं. पराजय के बाद उनकी सीमा अपने राज्य तक सिमित हो गयी और बल क्षीण. तो उन्होंने मेधा ऋषि के आश्रम में शरण तो ले ली पर मन राज्य पर ही टंगा रहा. एकदिन उनकी मुलाकात वहीं पर वैश्य (व्यापारी) समाधि से होती है जो खुद अपना धन इत्यादि धोखे से हर लिए जाने पर कुंठित है वो भी अपने परिजनों द्वारा.
दोनों साथ में मेधा मुनि के पास जाते हैं. दोनों का राज्य, धन , परिजन, परिवार इत्यादि छूट जाने पर भी जो स्नेह और ममता उन्हें सता रही है , उसका पर्याय जानना चाहते हैं दोनों.
ऋषि ने अपने जवाब में जो कहा वो थोड़ा चौंकाने वाला था.
वो कहते है की हर जीव का आपने विषय मार्ग होता है और ये सब कर्म भगवान् विष्णु के योगनिद्रारूपी महामाया का मोह भर है. इसका पहला भाग मुझे सीधा भगवत गीता की याद दिलाता है, पर फिर महामाया का प्रसंग कुछ नया है.
राजा को भी अब महामाया के बारे में जानना है.
ऋषि के अनुसार वो अजन्मा और नित्य हैं पर देवों के कष्ट निवारण को प्रकट होती है. ब्रह्मा जी की स्तुति पर वो खड्ग शंख गदा धनुष चक्र इत्यादि धारण कर मधु कैटभ को नाशक करने प्रगट हुयी थी क्युकी विष्णु घोर निद्रा में थे और समस्त विश्व उनके उत्पात से प्रकोपित.
तो भगवती ने कही जाकर विष्णु भगवान् को योगनिद्रा से मुक्त किया, और फिर उन्होंने ५ हज़ार वर्ष का बाहु युद्ध भी किया मधु कैटभ के साथ. मजे की बात, मधु कैटभ भगवन को प्रसन्न होकर वर मांगने को वरदान में उन्होंने उनका अपने हाथों से मरना ही मांग लिया। इस तरह धोखे से संहार होता है मधु कैटभ का.
कमाल है, पहले ही पाठ में धोखे को वीरता और भरोसे से ऊपर का दर्ज़ा ?
खैर आगे पढ़ा जाय.
ये अध्याय है , कमल के आसन पर विराजमान प्रसन्न मुखवाली भगवती द्वारा महिषासुर की सेना का वध का प्रसंग.
इंद्रा के नेतृत्व में देवताओ की सेना और महिषासुर के नेतृत्व में असुरो सेना की सेना का युद्ध सौ बर्षो तक चला जिसने देवता हार गए. अब सभी देवताओ ने मिलकर अपने शरीर से तेज़ निकाला और प्रत्येक के तेज़ से देवी के अलग अलग स्वरूपों का प्रादुर्भाव हुआ. शिव के तेज़ से मुख, यमराज से बाल , विष्णु से भुजाये चन्द्रमा से स्तन , इंद्र से कमर इत्यादि। सब एक्सटर्नल ऑर्गन, लिवर किडनी हार्ट यूटेरस वो सब नहीं बताया गया है। वो सब तो मॉडर्न साइंस हुआ न ? लेकिन सोचने वाली बात है की कौन से साइंस में इतने सारे पुरुष देवता मिलकर एक महिला का सृजन कर लेते हैं? ये भी कोई मेजर साइंस एक्सपेरिमेंट से कम तो नहीं है न?
खैर , उसके बाद सब देवता अपने अपने हथियार , आभूषण इत्यादि देवी को देते हैं. अंगूठी, चूड़ामणि यहाँ तक की कमल के फूलों की माला भी. अब जब देवी का जन्म महिषासुर की सेना का वध करने के लिए हुआ है, तो इन आडम्बरो की क्या जरूरत ? ये मेरी कम बुद्धि से परे है.
सिंहनाद के बाद देवी महिषासुर की सेना के साथ युद्ध करती है , बाकी देवता भी साथ देते हैं. देवी का वाहन सिंह दावानल की तरह असुरों की सेना में घुस पड़ता है, चारो तरफ खून की नदिया बह रही हैं और धरती कटे हुए शरीरों पट गयी है।
सेना का विनाश , एक वीभत्स दृश्य और देवताओ द्वारा फूल बरसाए जाने के साथ ही ये अध्याय ख़त्म होता है.
तृतीयोध्याय
लाल साड़ी, रक्त चन्दन का लेप, मस्तक पर चन्द्रमा लिए तीन नेत्रों वाली देवी कमल पर आसीन हैं और उधर सेना के विनाश के बाद असुर क्रोधित। अंबर से बाणों की बर्षा हो रही है, शूल तलवार देवी से टकराकर चकनाचूर हो रहे हैं. बड़े डिटेल में सिंह, हाथी , देवी और असुरों के अलग अलग तरीकों से इस युद्ध में हिस्सा लेने का वर्णन भी है , जो मैं यहाँ रहने दूंगी. देवी कई असुरो का वध कर चुकी है इस अध्याय में जिनके नाम भी दिए गए हैं जैसे दुर्धर, दुर्मुख, अंधक, भिन्दिपाल , चामर , उदग्र और कराल इत्यादि. अब नाम ही ऐसे हैं की पढ़ने के साथ ही आपको भी उनपर क्रोध आएगा और उनका ये वध जस्टीफ़ाइड लगेगा।
अब आता है महिषासुर भैंसे के रूप में, लेकिन जब देवी उसे महाक्रोध के पास में बांधती है वो सिंह बन जाता है। उसके बाद वो हाथी भी बन जाता है , लेकिन सूंड कटने के बाद वापस भैंसा। इसमें देवी को मद के नशे में, आंखे लाल करते और लड़खड़ाते हुए भी बताया गया है. वो तो ये भी बोलती है महिषासुर को की, जबतक मैं ये ड्रिंक ख़तम करती हूँ तो गरज क्युकी मृत्यु तो तेरी निकट ही है।
ओह , क्या पावर ! मजा आ गया पढ़ के. संस्कृत में बोलती है देवी " गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत्पिबाम्यहम "
उसके बाद वो उछलकर दैत्य पर सवार होती है और तलवार से मस्तक काट गिराती है.
दैत्यों में हाहाकार मचता है , देवी का स्तवन और गन्धर्व तथा अप्सराओ का नृत्य।
चतुर्थोध्यायः
चौथे अध्याय का नाम मार्कण्डेयपुराण में शक्रादिस्तुति भी कहा गया है. महिषासुर का वध हो चुका है , देवता नमन की मुद्रा में हैं और रोमांचित भी. वो देवी से कहते है की अब आप ही विश्व का पालन कीजिये, आप ही आश्रय है क्युकी आपमें रजो, तमो तथा सत्व तीनों गुण मौजूद हैं और किसी भी दोष से आपका संसर्ग नहीं है. ये वाला भाग पढ़ने के बाद मैं पतंजलि सूत्र के बारे में सोचने लगी जिसमे मैंने हाल ही में विस्तार में तीनों गुणों के बारे में पढ़ा है। और कैसे योग एक मार्ग है जो हमें सही बैलेंस बनाये रखने में मदद कर सकता है. तो जब हम देवी को सर्वगुण कहते है, तो वह इन्ही गुणों की बात है. लेकिन फिर सोचने लग गयी की कैसे हमारे नवीन समाज में गुणों को प्रदूषित कर दिया गया है. नारी का गुण उसके माधुर्य और अल्प भाषी होने में , बर्दाश्त करने इत्यादि जैसे लक्षणों से कैसे जोड़ा जा सकता है वही पुरुषो का कठोर होने, भावनाओं को नियत्रण में रखने तथा रोजी-रोटी जुगाड़ करने में?
समय के साथ हमने गुणों की परिभाषा ही बदल डाली क्या? सोचना पड़ेगा अभी और इस बात पर.
इस अध्याय में देवी को ज्ञानी, विश्व पालक, पीड़ा का नाश करने वाली, मेधावी तथा ऐश्वर्य से युक्त कहा गया है. उनके क्रोधित होने और प्रसन्न होने को बराबर उपयुक्त माना गया है. ये बात भी सोचने वाली है. समाज में हम ज्यादातर क्रोध को नेगटिव इमोशन की तरह देखते है , लेकिन क्रोध कई बार एक आवश्यक अनुभूति है जो हमें न्याय और सच के मार्ग पर अग्रसर करने की क्षमता रखती है. चाहे वह अन्याय हमारे साथ हो या किसी और के. क्रोध का सदैव विरोध कर अपने मन को मार कर सिर्फ प्रसन्न रहना, दोहरापन नहीं बनाता, झूठ नहीं है ये तो क्या है फिर? उपयुक्त जगह पर क्रोध और विरोध भी उतना ही महत्व रखते है जितना माधुर्य और वात्सल्य।
मैं चाहूंगी की मेरे पाठक इस अध्याय से यह अवश्य ग्रहण करे. यह अध्याय देवी के स्तुति, भक्ति और मंगल गान के साथ समाप्त होती है, साथ ही हिंट देती है की आगे हम शुम्भ और निशुम्भ के वध का वर्णन पढ़ेंगे.
पञ्चमोध्यायः
इसमें ऋषि बताते है शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरो के बारे में जो की अत्यंत उपद्रवी है और सूर्य चंद्र अग्नि वायु कुबेर यम वरुण इत्यादि को पराधीन कर चुके हैं. ऐसे में देवो की भगवती का स्मरण होता है, उन्हें अलग अलग नामों तथा विशेषणों से नमस्कार किया जाता है. इस अध्याय का दो तिहाई भाग मुझे रटा हुआ है , और अगर आप सबो ने कभी दुर्गा पूजा वगेरा में हिस्सा किया है तो " या देवी सर्व भूतेषु। .... नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः" ज़रूर सुना होगा। यह भाग किताब के अंत में "आठ तंत्रोक्तं देवीसूक्तम" के नाम से फिर दोहराया गया है.
यह भाग मुझे स्मरण भी है और अत्यंत प्रिय भी क्युकी इसमें कई सारे मानवीय गुणों की तुलना देवी के हमारे अंदर निहित होने की प्रकृति से की गयी है, साथ ही उसका नमन भी किया गया है बारम्बार।
कहा गया है की देवी सर्वत्र सौम्य रूप में, रूद्र रूप में, विष्णु रूप में, माया रूप में , चेतना रूप में , बुद्धि रूप में, निद्रा रूप में , भूख में, शक्ति में , तृष्णा में , जाति में , लज्जा में, कांति में, शांति में, श्रद्धा में , वृत्ति में , स्मृति स्मृति में, दया में , तुष्टि में , माँ में और यहाँ तक की भ्रान्ति अथवा कन्फ्यूज़न तक में मौजूद है. और यह आवशयक है की हम उसे इन सारे रूपों में नमन करे, और अपनाये।
इतने में गंगा स्नान कर भगवती प्रगट होती है और देवताओ से इस स्तुति का कारण भी पूछती है, जो देवता उन्हें बताते है.
चंड और मुंड को देवी का दर्शा होता है और वो ये खबर शुम्भ के देते है की इस मनोहर स्त्री को हमें हर लेना चाहिए। शुम्भ अपने दैत्य सुग्रीव को भेजता है की वो देवी को बातो से प्रसन्न करके साथ ले आये. दूत बना सुग्रीव, शुम्भ का बखान करता है और कहता है की उन्हें शीघ्र ही पत्नी बनने का प्रस्ताव ले लेना चाहिए। देवी मन ही मन मुस्काती है और शुरू होता है एक और पावर प्ले।
कहती है - "तुम्हारे दैत्य राज की शक्ति और क्षमता में मुझे कोई शक नहीं पर क्या करू अभिमानी और वचन से वद्ध हूँ , सिर्फ युद्ध में मुझसे जितने वाला ही मेरा स्वामी हो सकता है ".
दूत , देवी को घमंडी बुलाता है और स्त्री होने की क्षीणता भी याद दिलाता है.
देवी अपने वचनों पर अडिग अपनी शर्त को आदरपूर्वक दैत्य राज तक पहुँचाने को कहती है.
स्टेज सेट है, देखे क्या होता है अगले अध्याय में.
षष्ठोध्यायः
देवी का ये कॉन्फिडेंस दूत को असमंजस में डाल देता है, लेकिन फिर भी वो सबकुछ वापस जाकर बयां करता है. दैत्य राज कुपित , ज़ाहिर सी बात है. और भेज देता है धूम्रलोचन को सेना लेकर , देवी को पकड़ कर लाने या वध कर देने। साठहजार की सेना लेकर वह पहुँचता है देवी को ललकारने, धमकी देता है की झोंटा खींच कर ले जायेगा। देवी बड़े हिसाब से प्रत्युत्तर देती है और बस एक "हूँ" में ही उसका भष्म भी. सिंह और देवी ने मिलकर पूरी सेना का वहीँ विनाश कर दिया।
यह खबर शुम्भ को मिलती है और अब वो चंड और मुंड को भेजता है. उसे भी कहता है की बाल खींच कर ले आना उसे, न आये तो मार डालना।
इस "हूँ" शब्द पे मेरा ध्यान रुका थोड़े देर, आखिर कैसे हो सकती है एक शब्द में इतनी ताकत। और फिर ध्यान आया, चक्र बीज मंत्र का. योग के अनुसार मानव शरीर के प्राण सात मुख्यो चक्रो में प्रवाहित होते हैं, और इनको एक्टिव करने के अलग अलग बीज और स्वर मंत्र भी है.
"हूँ" बीज मंत्र ख़ास कंठ से निकलता है और पांचवे चक्र अथवा थाइरोइड ग्लैंड से रिलेटेड हैं. पांचवा चक्र है , क्रिएटिविटी और सेल्फ एक्सप्रेशन का. अपने आप को अपने रूप में अपनाना और अपने सत्य की जैसे का तैसे रखने की आजादी। क्या यही वो शक्ति थी जो देवी के तेज़ को इतना दिव्य कर देती है की असुर भष्म हो जाता है ?
हो सकता है न? अभूतपूर्व और अति उत्तम।
अब अगले अध्याय क्या होगा? सोचिये सोचिये?
सप्तमोध्यायः
भक्त मातंगी देवी का ध्यान करते हैं जो श्याम वर्ण की हैं और सिहासन पर बैठी तोते के शब्द सुन रही हैं. उनके पैर कमल पर, चाँद मस्तक पर , बिंदी भी है और लाल साड़ी तथा कसी हुयी चोली भी धारण है. ये "कसी हुयी चोली" वाला पार्ट हिंदी में लिखा है नीचे, मैंने संस्कृत में बड़ी छान बिन की लेकिन एक्साक्ट शब्द नहीं मिला. "रक्तवस्त्रा" कहा है बस, तो क्या ये ट्रांसलेशन वाले की अपनी स्ट्रेटेजी है ?
मुझे खुद ही संस्कृत का कुछ ज्यादा ज्ञान नहीं तो किसी और पे उंगली क्यों उठाऊँ , लेकिन अगर कोई इसका सच मुझे लाकर देने की कृपा करेंगे तो बहुत बहुत आभार होगा।
अब क्या करूँ , शक्की फेमिनिस्ट दिमाग है ऊपर से "कसी हुयी चोली" , कुछ जंच नहीं रहा मुझे।
उधर हम कसी हुयी चोली की बिवेचना में फंसे है , इधर चंड और मुंड चले आ रहे है चतुरंगी सेना लिए. देवी उन्हें आता देख मुस्कराती है , वो भी मंद मंद. दैत्य उन्हें पकड़ने की फिराक में हैं, और देवी ने अपना क्रोधित रूप धारण किया. जिसमे वो उतनी प्रिय नहीं लग रही है , बल्कि भयंकर लग रही हैं. नर मुंड की माला, शरीर का माँस गायब , जीभ बाहर और आंखे लाल. अब वो न सिर्फ ही वध कर रही है बल्कि कुछ का तो भक्षण भी वो भी दांतो से कुचल कर. यह हैं भयानक काली का रूप और सारे दैत्यों और उनकी सेना का सर्वनास. विकराल रूप लेकर (फिर) देवी "हं" का उच्चारण करती हुयी तलवार से चंड का सर कलम करती हुयी अट्टहास करती हैं. चंड जमीन पर गिरता है और मुंड भी दौड़ता है देवी की तरफ, और क्षण भर में वो भी बलि हो जाता है. दोनों के मस्तक लिए काली, देवी के समीप जाती है और अपना नया नाम चंडिका भी कहलाती है.
क्या लगता है , अगले अध्याय में कुछ शांति की उम्मीद है? नाह अभी तो कई सारे दैत्य और मारने पड़ेंगे। दुर्गाशप्तशती हो या आज की नारी, अपनी इस्मिता बचाने के लिए सिर्फ एक या दो के खात्मे से कहाँ काम चला है कभी.
तो जानते है अगले अध्याय में , अब कौन आने वाला है.
अष्टमोध्यायः
इस अध्याय में भक्त ध्यान करते हैं लाल शरीर वाली भवानी का जिनके नेत्रों में करुणा है और हाथो में हर तरह के अस्त्र।
अब हुआ यु की, इतनी जो तबाही मची है तो शुम्भ गुस्से में है और इसबार वो चांस लेना नहीं चाहता। वो सेना को ऑर्गनाइज़ करता है , अलग अलग बटालियन बुलाता है , उनके नंबर भी है. जी हाँ , मैं बात नहीं बना रही. पढ़ के देखिये। पचास कोटि कुल के सेनापति , सौ धौम्रा कुल के इत्यादि। इसमें बड़ा ड्रामेटिक सीन है , उधर सिंह दहाड़ रहा है उधर घंटे बज रहे तो कहीं धनुष की टंकार। दैत्य सेना ने घेर लिया है देवी और उनके सिंह को. और अब आता है इंटरेस्टिंग टर्न. देवी के अलग अलग रूप अपने अनुरूप अपने अलग अलग वाहनों के साथ आ रहे हैं लड़ने। ब्राह्मणी , जगदम्बिका , चंडिका , कोई गजराज पर, कोई बराह पर तो कोई भैंसे पर बैठी चली आ रही है। अनुपम, अति अनुपम दृश्य है. मेरा मन किया वीमेन पावर और यूनिटी का ये मोमेंट थोड़े देर और एन्जॉय करूँ। थोड़ा ध्यान कर लूँ और अगर किसी दिन हिम्मत हुयी तो पेंट भी कर डालूं एक कैनवास , वैसे काफी एम्बीसियस होगा ये प्रोजेक्ट।
देवी इन सारी शक्तियों से घिरी युद्ध का आवाहन करती हैं , फिर क्या एक एक करके भगवती के रूप संहार किये जाते हैं असुरो का और सेना त्राहि त्राहि करती है.
पर एक समस्या आ खड़ी होती है क्युकी इस सेना में है एक मायावी दैत्य "रक्तवीज" जी हाँ, इसके रक्त की हर बूँद एक नए रक्तबीज का जन्म हो जाता है. ये तो मल्टीप्लाई हो रहा है वायरस की तरह. इसका क्या करे देवी अब? लोकडाऊन तो डरने वाले करते है और वैसे भी भगवती को इम्युनिटी की प्रॉब्लम नहीं है कोई.
ऐन्द्री की गदा से उसका बहुत सारा खून गिरता है और ढेर सारे नए रक्तबीज खड़े हो जाते है. वैष्णवी के चक्र से भी एक्साक्ट सेम असर , कौमारी भी कोशिश करती है लेकिन अब देवो की चिंता बढ़ रही है. उनको आईडिया आता है , चंडिका के पास जाते हैं और कहते है अपना मुख फैलाओ।
चंडिका और काली मिलकर दैत्यों के न सिर्फ शरीर का भक्षण करती है बल्कि रक्त की हर बूँद को अपने मुख में ग्रहण भी. काली के मुख में गिरकर भी दैत्य जन्म ले रहे है , लेकिन उनका संहार उनके मुख में ही हो जाता है. अंततः रक्तहीन शरीर धरा पर गिरता है और मातृगण (भगवतीके हर रूप) मद मस्त नृत्य करती हैं.
वीभत्स , बहुत ही वीभत्स दृश्य है लेकिन और चारा भी क्या था। कई बार , विनाश ही एक रास्ता होता है नए सृजन का और आवश्यक है की हर बड़ी छोटी जीत को उतने ही उत्साह से अपनाया जाय. नियम है यह भी, प्रकृति का और देवी का सन्देश भी.
नवमोध्यायः एवम दशमोध्यायः
अब मैंने ये दोनों अध्याय मिला क्यों दिए ? ऐसे ही, थोड़ा चेंज हो जायेगा और इसलिए भी क्युकी इन दोनों अध्याय में एक एक करके निशुम्भ और शुम्भ मारे जाएंगे। अरे ! मैंने तो सस्पेंस ही ख़तम कर दिया। लेकिन आप लोग जो भक्त जान ये पढ़ रहे है , उनको पहले से ही पता है की अंत में ऐसा होने ही वाला है , है की नहीं ? तो मैंने कुछ नहीं बिगाड़ा, चलिए मैं खुद को ये कहकर अपना मन तो मन ही लेती हूँ.
इस अध्याय में पहले अर्धनारी रूप की देवी का ध्यान करते हुए , ऋषि आगे बढ़ते हैं. याद रहे , ये पूरी कहानी मेधा ऋषि अपने आश्रम में राजा और वैश्य को सुना रहे है.
तो, अब निशुम्भ बड़े गुस्से में हैं और प्रधान सेना की टुकड़ी लिए देवी पर हमला करता है. मुझे लगता है अबतक शुम्भ और निशुम्भ ने इस विध्वंसकारी देवी से विवाह की कल्पना तो त्याग ही दी होगी, पक्के से सोच रहे होंगे की कैसे ये बाला ख़तम हो. तो फिर क्या, वही बाणों की वर्षा , गदा , भाले, त्रिशूल और तलवारो का टकराना जारी है। एक दो बार देवी मुक्के भी चलाती हैं इसमें, "आयातं मुष्टिपातेन देवी " .
निशुम्भ के धरती पर गिरने की खबर आने से शुम्भ अम्बिका का वध करने बढ़ता है, जिसे देख देवी शंख बजाती है और अपनी धनुष का टंकार भी. ये होती है स्ट्रैटेजी , दुश्मन को अटैक से पहले ही अपनी ताकत का अंदेशा देना। मार तो कोई भी सकता है , लेकिन ये बता कर "की आओ, देख लुंगी" कमाल है बस. शुवदूती भी अट्टहास करती है , ये होती है कामरेडरी , एक दूसरे का साथ देना और उनकी हिम्मत बढ़ाना। जायज है, ये सब देख असुर थर्रा उठे. देवताओ ने भी साथ दिया और "जय हो" के निनाद से तीनो लोक गूंज उठे. यह होती है ताकर शब्दों की , सस्त्रो के चलने से पहले ही शत्रु का मनोबल गिराने की क्षमता का शानदार प्रदर्शन।
देखते देखते चंडिका शूल से शुम्भ को भी धरती पर गिराति है. लेकिन, इतने में निशुम्भ वापस उठ जाता है. चंडिका को "खड़ी रह" कहकर ललकारता है और उधर
वाराही , बैष्णवी , कौमारी , ऐन्द्री जहाँ असुरो के विनाश के इस युद्ध में डटी हुयी है, चंडिका निशुम्भ का अंत करती हैं.
दशम अध्याय में भगवती कामेश्वरी का ध्यान है जो सोने के वर्ण की हैं. कुपित शुम्भ देवी के सामने आकर बोलता है " दुष्ट दुर्गा, तुझे झूठे बल का अभिमान है , बड़ी मानिनी बनी हुयी है और दूसरी औरतों के भरोसे लड़ती है ".
देवी कहती है "दुष्ट , मैं अकेली ही हूँ और ये सारी जो तू देख रहा है ये मुझे अलग नहीं है "
बात दिल को छु गयी.
आजकल के सामज में कितनी औरते है जिनको कोई कह सकता है की "तुम दूसरी औरत का सहारा ले रही हो ". न, हमारे तो दिलो दिमाग में ठूस दिया गया की औरत ही एक दूसरे की दुश्मन है और इस भरोसे की नीब ही हिला दी गयी. फिर कोई राक्षश से कैसे जीते ? काश आज भी हर एक और ये कह पाए की "ये सब तो मेरे ही रूप हैं और हम एक दूसरे से अलग नहीं", मजाल है कोई दैत्य टिक पाए?
खैर.
देखते देखते सारे देवी के रूप एकाकार हो जाते हैं और देखने में अब वो अकेली खड़ी हैं. भयंकर युद्ध जिसमे देवी की छाती में शुम्भ का मुक्का भी लगता है और शुम्भ को देवी का थप्पड़. आकाश में बिना आधार के हुए जा रहा है युद्व और ऋषि मुनि तक विस्मित है ये सब देख कर. बड़े शंघर्ष के बाद देवी उसे पृथ्वी पर पटक अपने शूल से उसका संहार करती हैं. पूरा जगत इस खबर से प्रसन्न होता है , आकाश स्वच्छ होता है , नदियां मार्ग पर बहती है , हवा साफ़ हो जाती है और जैसा की आप जानते ही है , गंधर्व और अप्सराओ का नृत्य भी होता है.
सूर्य की प्रभा उत्तम हो उठती है।
"सुप्रभोभूद्विकारः"
एकदशोध्यायः
इसमें भक्तो को भुवनेश्वरी देवी का स्मरण कराया गया है जो सूर्य के सामान आभा वाली, मुस्कान लिए और उभरे स्तनों तथा तीन नेत्रों वाली है.
ऋषि कहते हैं, शुम्भ और निशुम्भ से त्रिलोको की मुक्ति के बाद देवता बड़े हर्ष में हैं और देवी कात्यायनी की स्तुति कर रहे हैं. कह रहे है की बस अब हमपर प्रसन्न हो जाओ , हम शरण में है तुम्हारे, तुम्ही जग की समस्त माया हो और पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति करा सकती हो. जगत की हर स्त्री तुम्हारी मूर्ति है और हमारे पास शब्द नहीं की तुम्हारी स्तुति कर सके.
इस अध्याय में कई सारे पार्ट हैं जो मुझे रटे हुए थे , शायद आपने भी सुन रखे होंगे.
"देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद , प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य"
"सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके, शरण्ये त्रयंबके गौरी नारायणी नमोस्तु ते "
तरह तरह के उपमाओं के साथ , आभूषणों और अंगो की व्याख्या के साथ बड़े ही डिटेल में देवी के विभिन्न रूपों की प्रार्थना और विनय की प्रार्थना ही है लगभर सार, इस अध्याय का. इतना महायुद्ध जिस देवी ने स्वयं लड़ा हो और साबित कर दिया हो की वो कर सकती हैं , तो वंदना अर्चना स्वाभाविक ही है. संस्कृत के बड़े की पावरफुल लिरिकल पंक्तिबद्ध शब्दों में अलंकृत ये ग्रन्थ अवश्य ही एक बहुमूल्य जेवरात है.
देवी को अंधकारमय अज्ञानता से बाहर निकालने का मार्ग कहा गया है, लक्ष्मी, सरस्वती, विश्वेश्वरि अदि कई नामो से आदर दिया गया है.
अंततः होकर कह भी देती है की जो इच्छा हो वह वर मांग लो और अगर वह संसार के उपयुक्त हुआ तो अवश्य प्रदान करेंगी.
देवता उनसे भविष्य में भी दैत्यों से मुक्ति की कामना करते है, काफी उपयुक्त दरख्वास्त।
देवी वादा करती हैं की वो कभी यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर , तो कभी पृथ्वी पर जन्म लेकर वैप्रचित्त नामक दैत्य , तो कई अन्य दैत्यों का नाश करती रहेंगी. साथ ही ये भी बताती है की इस संहारो की वजह से उन्हें रक्तदन्तिका , शताक्षी , शाकम्भरी , भीमादेवी, भारमरी और भी कई नामो से जाना जायेगा।
अब अगर आपको यह जानने की बड़ी उत्कंठा है की ये सारे नाम उन्हें कब और क्यों मिलेंगे तो दिर्गाशप्तशती ज़रूर पढ़िए। मेरा कार्य सिर्फ विश्लेषण है, ट्रांसलेशन नहीं।
द्वादशोध्यायः
इसमें भक्तो को दुर्गा देवी का ध्यान करने को कहा गया है, जो की बिजली के समान अंगो वाली हैं और सिंह के कंधे पर बैठी हैं. उनकी सेवा में कई कन्याये कड़ी है और उनके हाथो में सभी अश्त्र है. पढ़कर एकदम कोलकाता के पंडाल की दुर्गा का स्मरण हो गया मुझे और घर की याद भी आने लगी. पिछले साल पूजा में घर गयी थी , जीवन के सबसे सुखद अनुभवों में एक था, परिवार के सदस्यों के साथ कोलकाता में दुर्गा पूजा वो भी बरसो के बाद. वो माहौल, उत्साह और दुनिया के किसी कोने में वैसे बनाया ही नया जा सकता। ढोल और ढाक की न रुकने वाली आवाज, शंख और घंटियों की ध्वनि, अगरबत्ती और धुनकी का नशा और कला का केंद्र बना हुआ सारा का सारा शहर. ओह. किसी और दुनिया में खो सी जाती हूँ जब सोचती हूँ.
खैर, वापस आते है हमारे बारहवे अध्याय में. इस किताब में कुल तरह अध्याय है , बाद में कुछ और भी हिस्से हैं, मैं उनका भी विश्लेषण लिखूंगी।
तो, दुर्गा देवी कहती हैं की अगर एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन मेरा ध्यान करोगे तो मैं निश्चय ही हर बाधा दूर करुँगी. साथ में एकबार फिर पिछले अध्याय में मृत्यु को प्राप्त होते दैत्यों का नाम आता है, और अष्टमी चतुर्दशी और नवमी के दिन पाठ करने की याद दिलाना. ऐसा करने से लोगो को पाप नहीं छूएगा न ही शत्रु, लुटेरे , राजा, शस्त्र , अग्नि या जल बिगाड़ पायेगा. महात्मय को पढ़ना, बलि , होम , वार्षिक पूजा इत्यादि में सम्पूर्ण श्रवण और पाठ से देवी प्रसन्न होती है. धन धान्य तथा पुत्र कोई संदेह न होगा और हर पीड़ा का नाश होगा, सो अलग.
पूजा की पद्धति, सामग्री और ब्राह्मण भोजन की भी चर्चा की गयी है, साथ में इसके होने वाले फायदे भी.
यह सब देवी खुद बताकर अंतर्धान हो जाती है, ऐसा ऋषि कहते हैं.
त्रयोदशोध्यायः
इसमें शिवा देवी का प्रसंग है , जिनके कांति सूर्य जैसी है, चार भुजाये हैं और तीन नेत्र।
ऋषि कहते हैं की देवी विद्या उत्पन्न करती है और सारे विश्व को महामाया बनकर मोहित करती है. राजा को उनकी शरण में जाना चाहिए भोग , स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए.
ये सब सुनकर, राजा नदी के तट पर बैठ देवी की तपस्या का मन बना लेते हैं. मिट्टी से मूर्ति बनाते है , पुष्प , धुप इत्यादि जलाते है और आहार कम करते करते पूरा निराहार कठिन तप शुरू करते हैं. अभी तक कई अध्यायों में "एकाग्रचित" होने की बात बार बार कही गयी है, मेडिटेशन और ध्यान को उपासना का एक आवश्यक माध्यम बताया गया है. राजा और वैश्य दोनों ही अपना रक्त भी देवी को चढाते हैं और तीन वर्ष तक नियमित उपासना करते है, तब जाकर कही चंडिका प्रसन्न होती है और प्रकट होती हैं. कहती है बताओ क्या चाहिए?
राजा अपना न नष्ट होने वाला राज्य तथा शत्रुओ का नाश मांगते है , जबकि वैश्य ममता और अहिंसा रहित जीवन।
देवी दोनों को उनके मनोवाञ्छित वर देकर अंतर्धान हो जाती है.
इसमें एक बात थोड़ी सोचने वाले लगी की राजा ने कठोर तप किया अपना सबकुछ न्योछावर करके तो किस लिए? किसी और के विनाश के लिए और अपने सुख समृद्धि की प्राप्ति के लिए ?
क्या इसीलिए की राजा के जीवन का वही धर्म है ?
राजा कितना भी उदार और स्वार्थ रहित हो, उसके लिए उचित है की वो युद्ध करे और जिस भी प्रजा ने उसमे विश्वास किया है उसकी सुरक्षा तथा पालन भी?
क्या ये सारे रूल आज भी कायम माने जायेंगे?
क्या हम आप सबके धर्म अलग अलग है?
और हमारे अपने अपने धर्म और कर्म के पालन में ही हमारा मोक्ष है?
तेरहवां अध्याय ख़तम हुआ और साथ ही कई सारे सवाल भी उठ खड़े हुए. जिनके जवाब कभी भी सीधे सीधे नहीं हो सकते। शायद इसीलिए न तो ये माहात्म्य यहाँ ख़तम होना और न ही मेरे और जानकारियां हासिल करने की उत्कंठा।
अध्याय ख़तम होने के बाद नवार्ण जाप के कुछ मंत्र दिए गए हैं. ये भी छोटी छोटी कवितायें हैं विष्णु , गणेश , ब्रह्मा, अग्नि , इत्यादि के आह्वान के साथ ह्रदय, नेत्र, शिखा , मुख सब कुछ को स्मरण करने के लिए। ये सब कुछ सीधे सीधे योगिक प्रैक्टिस का ही हिस्सा हैं , जिसमें हम अपने बाहरी शरीर के साथ साथ काल्पनिक धारणाओं को अपनाकर , अपने अंतर्मन में प्रवेश करते हैं. ध्यान के बहुत सारे मंत्र बताये गए है और मैं मान सकती हूँ की सब के सब उच्चकोटि के काव्य संकलन है. जितना ध्यान तुकबंदियों का रखा गया है, उतनी ही उपयुक्त ध्वनियों का संकलन. बीज मंत्र के उपयोग से इस तन्मयता से ध्यान करना , किसी के लिए भी बहुत ही लाभकारी हो सकता है. और वो भी , जब इतने सारे फायदे और भूमिकाओं के साथ परोसा जाए तो मन पहले से ही तैयार होता है. किसी भी तरह के ध्यान का असर इंसान के शरीर एवम मष्तिष्क पर तभी होता है जब आपका दिमाग साफ़ हो और एकचित्त। मंत्र एक बहुत ही अनूठा तरीका है , दिमाग को लगातार होने वाले खयालो की बमबारी से निकाल कर शांत करने
अपने आप को ,अपने विचारो तथा अपने सारे दुःख तकलीफों को भी देवी को समर्पण करके ध्यान करने की बारम्बार चर्चा की गयी है। ये भावना कदाचित इस ग्रन्थ के हिसाब से देवी के लिए जरूरी है , लेकिन योग के हिसाब से ध्यान के लिए कोई भी वस्तु उचित हो सकती है। एक पेड़ , एक पत्थर और लाखों मील बैठा एक सितारा भी. तभी तो वेदों में हर तरह की चीज़ो का उल्लेख भगवान के रूप में किया गया है , असल में भगवान् कर वो वस्तु है जिसके लिए आप समर्पण की भावना उपजा सके और एकाग्रचित्त हो सके.
मीरा के लिए वह कृष्ण की मूरत थी तो सिद्धार्थ के लिए बोधि का पेड़.
आप चाहे तो ठीक वही स्थान भगवती त्रिनेत्रा दुर्गा को दे सकते हैं, और यह ग्रन्थ आपको ठीक वही करने के लिए कई सारे उपाय भी बताती है.
इसके बाद, देवीसूक्तम है जो शायद ऋग्वेद से लिया गया है. सिंहवाहिनी की पूरी छवि को एकबार फिर से आँखों के सामने प्रकट कर दे, ऐसी प्रभावशाली पंक्तियों से भक्त का ध्यान केंद्रित किया गया है. बाद में वही सब कुछ , की देवी कैसे सारी दुनिया को चलाती हैं और सब कुछ कर सकने की क्षमता रखती है.
फिर तांत्रिक देवीसूक्तम है, ये हिस्सा हम पहले पढ़ चुके हैं. जी हाँ वही , नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः.
इस पोथी में देवी के तीन रहस्यों की व्याख्या है , प्रधानिक , वैकृतिक और मूर्ति। तीनो को परम गोपनियीय कहते हुए, ऋषि बड़े ही साफ़ साफ़ शब्दों में ये सारे रहस्य बताते है। मुझे तो लगता है गोपनीयता की बात सिर्फ पाठको का ध्यान खींचने के लिए बोला गया है. कैसे हमारी नानी दादी जब कुछ नया सुनाती थी तो पहले तो बड़ी न नुकुर और बाद में बोलने के पहले ही भूमिका की "ये बात तो ऐसी है , की मैंने किसी को आजतक नहीं कही, चलो तुमको बता देती हूँ क्युकी तुम मुझे बड़े प्यारे हो ". ठीक वैसा ही कुछ लगता है इन रहस्यों की श्रंखला के पीछे। वैसे भी , इतनी ड्रामेटिक थ्रिलर अभी अभी ख़तम कोई है , पाठक आगे पढ़े उसके लिए थोड़ा बहुत तो हुक रखना पड़ेगा न लेखक को.
अब जब लेखक ने इतनी मेहनत की है तो ये रहस्य मैं कैसे खोल दूँ ?
अच्छा थोड़ा सा बता देती हूँ. इसमें देवी की उत्पत्ति , उनके अनगिनत रूपों की उत्पत्ति तथा सबके गुणों और लक्षणों की व्याख्या है वो भी डायग्राम के साथ. मूर्ति रहस्य ख़ास कर काफी विसुअल है और देवी के रूपों की व्याख्या में नए एंगल और सामग्रियों को भी शामिल किया है. कुल मिलाकर , सारे सेंसेस इनगेज़ करने की भरषक कोशिस और अभूतपूर्व सफलता।
क्षमा प्रार्थना , ये भी मुझे रटा हुआ है. बचपन से ही सुना हुआ है और जब से होश सम्हाला पढ़ती आयी हूँ. मन के हर कोने में भरा था की कुछ भी कर लो , पूजा में मेरे कमी रह ही जायेगी इसीलिए क्षमा प्रार्थना और देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम अच्छे से मन लगाकर पढ़ लिया करती थी. आज अच्छा लग रहा है सोचकर , वर्ण जिस तरह से मैंने पिछले एक महीने में इस पुस्तक को कब और कहाँ कहाँ नहीं पढ़ा , पद्धति की एक भी बात नहीं मानी , अब तो देवी रुष्ट हुयी तो मेरे पढ़े श्लोक ही कुछ कर सकते हैं.
शायद इसीलिए अभी भी लिखे जा रही हूँ.
क्युकी "कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति" .
देवी ने अपने मुख से एक और गोपनीय और दुर्लभ मंत्र दिया है "दुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला" में. जी हैं, इसमें जो ३२ नाम हैं , इसके पाठ से निःसंदेह हर शत्रु, भय और कष्ट का निवारण हो जायेगा. लेखक के हिसाब से, ऐसा देवी स्वयं कहती है और अंतर्धान हो जाती है.
सिद्धकुंजिकास्त्रोतम , एक उच्चकोटि की रचना है जिसमे बीज मंत्रो का बहुत ही अच्छा प्रयोग किया गया है. वैसे तो इसका अर्थ भी, देवी की महिमागायन ही है लेकिन स्टाइल बाकी किताब के मंत्रो से थोड़ा सा हैट कर है. इसे मैंने पहले तो मन ही मन पढ़ा एक दो बार , फिर बाद में बोल कर. और इन शब्दों का ज़रूर ही खासा असर होता है आपके चारो और प्रवाहित होने वाली प्राण वायु पर. कभी कोशिश कर के देखे।
ये क्या , मैं तो पुस्तक की वकील ही बन गयी।
अंत में हैं ३० और मंत्र , साधना और मनन के लिए. मंत्रो का उत्तम कैटलॉग।
और बिलकुल अंत में दो बिलकुल सहज भाषा में आरती दी गयी है. सोचने वाली बात है की जहां बाकि पूरी किताब टॉप ग्रेड संस्कृत में है जो की किसी प्रकांड पंडित का ही लिखा हो सकता है, वहां पर ये दोनों आरती देवी और अम्बा की इतनी सराह हिंदी में , कुछ चिपकायी हुयी सी लगती है. लेकिन ये बात शायद मैं कभी जान नहीं पाऊँगी।
और क्या सब कुछ जान लेना हमेशा जरुरी होता है ?
क्यों हम मनुष्य कुछ चीजों को ठीक वैसी ही ग्रहण नहीं कर लेते जैसी वो हमारे सामने रख दी गयी है ? जैसी वो हमारे मन को प्रतीत हो रही है ? क्यों जरुरी हो जाता है , उसकी छान बीन कर लेना? दस जगह से पता करके , उसको हज़ार लोग से मनवाने की भी कोशिश करना ? क्यों ?
क्यू नहीं हम अपने मन को टटोल कर जान लेते हैं की आखिर हमारी आत्मा के अंदर क्या है ?
किस मिट्टी की महक और किस कोयल की चहक से खिल उठता है हमारा मन ? क्युकी ये अनुभूतियाँ ही तो वो खिड़की दरवाजे हैं जिनसे होकर हम स्वयं को स्वयं से मिला सकते है. और जब आत्मा को पहचान ले , तो परमात्मा से मिलन और मोक्ष कुछ दूर नहीं होता।
इसी के साथ मैं यह श्रंखला समाप्त कर रही हूँ, पर छोड़ देना चाहती हूँ आपको कुछ ऐसे सवालो के साथ जो शायद आपको भी खुद से और अपनी आत्मा के सत्य से अवगत करा सके किसी दिन.
इस श्रंखला को पढ़ते हुए अगर आपको किसी भी समय ऐसा लगा हो की मैंने किसी भी तरह से हिन्दू धर्म के श्रद्धा और भक्ति की अवहेलना की है, तो क्षमा प्रार्थी हूँ. मेरा उद्देश्य तो बस इस किताब को पूजा शेल्फ से निकाल कर हर टेबल लैंप के नीचे तथा योग मैट तक ले आना था. कोशिश सफल रही या नहीं वो तो पता नहीं पर मेरे लिए इतना यथेष्ठ है की मैंने कोशिश की और अंत तक निभा सकी.
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