सदा सुहागन रहो

 सदा सुहागन रहो 



माँ, मुझे अब नहीं रहना 

माँ मुझे अब नहीं करना 

माँ  मुझे अब नहीं सहना 

माँ, माँ , सुना तुमने ?


टुंगटुंगाटी रही मंदिर की घंटी 

तुम आज फिर एक बार 

लहू अपने हृदय का हथेली पे रंगे 

मैं आयी थी तुम्हारे द्वार 


कहते रहे तुमसे 

नयन से बहते अश्रु धार 

इतनी सी विनती की 

नहीं, भेजो मुझे उस पार 


बहन ? 

दीदी ? 

दोस्त? 

सखी ?


खटख़टाकर द्वार सारे 

मैं अभी आयी यहाँ थी 

खिड़कियों से ही सबने 

मुझसे अब लेली विदा सी 


बस स्नेह, धैर्य विश्वास 

की तुमसे उम्मीदे थी सखा 

लेकिन ये क्या किसीने तो 

पलट कर भी नहीं देखा? 


ओह, तुम्हारी आरती का वक़्त है 

मैं भी यहाँ क्यों आ गयी 

अपनी विपदा के लिए आखिर 

जिम्मेदार तो ठहरी मैं ही? 


क्या काटना शिशुपाल का सर 

कृष्ण का एक दोष था ? 

अपने प्राण की रक्षा करना 

अब मेरा प्रतिशोध था? 


जानकार अनजान बनना 

देना मुझे सच की सजा 

क्या तुम्हारे अपने मन का चोर 

है इस दुर्व्यवहार की वजह? 


नाम उसका और मैं 

इस नाम से जोड़ूँ नहीं 

झूठ भ्रम और लांछनो के 

क़र्ज़ मैं ओढ़ूँ नहीं 


इतना कहने के बाद भी 

तुम बस पूछती हो "कैसी हो"? 

प्रत्युत्तर की आकांक्षा नहीं 

आशीष ये की सदा सुहागन रहो?

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