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यथा योग्यं तथा करू

मत्समः पातकी नास्ती , पापघ्नी त्वत्समाँ नहीं एवं ज्ञात्वा महादेवी , यथा योग्यं तथा करू ये शब्द मन में कुछ जम से गए, पिछले सप्ताह दुर्गा सप्ताशी पढ़ते हुये. इन शब्दों को कहते हुए मैंने प्रत्येक दिन पुस्तक को बंद किया और हाथ जोडे. आँखों को मूँद कर मन में कुछ ऐसे ही विचार आय़े. माँ, यदि यही सच है की तुम ही सारी इन्द्रियों में बसती हो और उनकी परिचालक हो तो मैंने इन्ही इन्द्रियों के वशीभूत हो जो भी कर्म किये, क्या वो तुम्हारी के क्षमा योग्य हैं? कभी अपनी जिह्वा से किसी को चोट पहुचाई तो कभी किसी को तुच्छ दृष्टि से देखा. कभी अपने मन, ह्रदय और मस्तिषक को सुख देने, जाने-अनजाने अपने आपको सर्वोत्तम स्थान पे रख औरो की अवहेलना की. अनजानी की तो बात जाने भी दू, पर जिस में खुद को दोषी पाती हूँ क्या उसके लिए तुमसे क्षमा प्राथना कर सकती हूँ? मान भी लूं की तुम ममता मई हो और मुझे क्षमा दे भी दो, क्या मैं खुद को क्षमा कर पाऊँगी? फिर किस तरह मैं खुद को तुम्हारी प्रार्थना याचना के योग्य बनाऊं? चूँकि इस सब बातो का कोई उत्तर मुझे नहीं दीखता "यथा योगं तथा करू" ! इतना कहकर मैंने आरती की थाली ...
जब जा रहे थे तुम, और आँखों का मेरे रंग जो छलका तुमने क्यों कहा की, एक भी आंसू तुम्हारे ना छलकने दो पलकों को फिर मैंने नहीं गिरने दिया बिलकुल बात को सुनती रही , देखती रही हरेक हरकत को थी कितनी बाते बोलने की और पूछने की कब मिलोगे, कब मैं देखुगी तुम्हे फिर से कैसे कहूं की प्यार कितना है मुझे तुमसे कब ये जानोगे की, जीना जानती नहीं मैं लेती हूँ साँसे बस तेरे ही इंतेजारी में कुछ नहीं, कुछ भी नहीं, एक शब्द न बोले वरना ये बाढ, आंसुओ का रोक क्या पाते?
दिल जो हूँ तेरा , इसीलिए शायद ये जानता हूँ कैसे शातिरे दिमाग पर तेरे , मैं भारी पड़ता हूँ क्यों चाहकर भी राह सही तुम ले नहीं पाते क्यों सुन के मेंरी भी मुझको खुश रख नहीं पाते क्यों मैं पल पल रंग आखिर इतने बदलता हूँ क्यों तेरा होकर भी औरो के लिए धड़कता हूँ क्या करोगे, अब जो हूँ सो मैं हूँ, बस हो गया उसका जबतक चलूँगा, तब तलक रहेगा दिल का ये रिश्ता
जब भी खुद को, नजरो से तेरे देखती हूँ खुद को ख़ूबसूरत और मासूम पाती हूँ बंद करते ही आँखे या आईने के सामने चुभता है खुद को मेरा, खुद अपना वजूद घिन आती है की मैं क्या, कुछ भी, कोई नहीं हूँ नाजायज है मेरा, तुम्हे अपना कहेना आसान ऐसे जीना मेरा भी नहीं है पर उससे भी कही मुश्किल, तेरा मुझको सहेना
झूठा तू, और झूठी मैं रिश्ते झूठे दुनिया झूठी जब रूठा तू, तो रूठी मैं मौसम रूठा खुशियाँ रूठी आईने में खुद को देखा , पहचान न सकी आईना टूटा मैं भी टूटी
तुझे देख कर जो हंसी , लबो पे फैलती है तुझे छूकर, धड़कने दिल की, जो बेतहाशा दौड़ती है नशा इस अनजाना जो करता है बेकाबू क्या कहते है इसी को, प्यार या है ये काला जादू?