कुनमुनाता सा उठा है दिल में पुराना कोई जोश हाय अब अर्सो के बाद आया है फिर से जैसे होश सर्दियों की भोर ये और रूह तक की कपकपी आरज़ू की आंच में अब लम्हात की रोटी सिंकी बस सुक़ून थोड़ा सुक़ून तुझको मिले मुझको मिले खुद से फिर जी भर मिले भूल कर शिक़वे गिले
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आज थोड़ा कुहासा सा है बाग़ में, फ़रवरी का महीना जो है. लेकिन इस ठंढ वाली भोर में हलकी सी ख़ुमारी भी घुली महसूस होती है. सूरज की किरणे बड़ी मुश्किल से इस कुहासे वाली भोर को धूमिल से जरा नारंगी और गुलाबी रंगने की कोशिश में हैं और ऊंघता हुआ गुलाब अब जाग रहा है. ये वाला गुलाब जरा नीचे वाली में डाल पे खिला था , इसीलिए उसतक तो सूरज की किरणे वैसे भी नहीं पहुँच पाती. शयद इसीलिए ये थोड़ा रंग के मामले में भी मार खा गया और बाकी साथियो के तुलना में बढ़ भी न पाया. और तो और ऐसी जगह में फंसा पड़ा है की ज्यादा भवरे और तितलियाँ भी यहाँ नहीं फटकती। उठ के करना ही क्या है, थोड़ी देर और सो लेता हूँ. सोचते हुए गुलाब फिर अपनी पंखुडिया थोड़े ढीली छोड़ ऊँघने लग गया. पर बाग़ में होती चहलकदमी ने आखिर उसे फिर से जगा डाला. आज कुछ ख़ास है क्या? उचक कर देखा तो भौचक्का रह गया. कल तक तो सारी की सारी क्यारियां और उनमें पनपे हर पौधे की डाल गुलाबों से लदी पड़ी थी, कहाँ गयी सब की सब. बस मेरे जैसे कुछ यदा कदा फंसे वाले ही बच गए हैं और झुरमुटों से एक दूसरे को ताक रहे हैं आज? क्या हो गया बाग़ में? हज़ारो तो थे कल तक, हर रंग में इठला...