बातें कही तो हैं पर उससे कही ज्यादा छिपाई गयी हैं दबी ज़बान और तेज़ साँसों में कभी तबियत कभी मौसम कभी सही कभी गलत न बूझ पाने में आरज़ूओं को चुपचाप सौपी रिहाई गयी है तन्हाई में मुस्कराते है सहलाते वो ज़ख्म झूठी कल्पनाओ में डूबते उतराते से हम सहेज सहेज रखते है दिल की कोनो में वो आग जिसने जल जल सदियो में कर डाले रूह पे दाग फिर भी खामोशियों में साथी वही है सच जानता है वो कुछ भी बाकि नहीं है
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Showing posts from August, 2016
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हे श्याम न जाओ मुझे यु छोड़कर तट पर कहे देती हूँ मुड़ के आये तो शायद न पाओगे काली जमुना मेरे काले नैनो को निगल जाएगी और ये शीतल चाँद भष्म करदेगा मेरे तन को ये हवा कर देगी तितर बितर सबकुछ ये भूमि चुपचाप तमाशा देखेगी कहती हूँ न जाओ क्योंकि मैं न रहूंगी लेकिन फिर भी बचूंगी बस तुम्हारी कलपते मन के हर कोने में बड़ा कष्ट होगा जो कान्हा तेरे नैन भीगेंगे मेरे कारण मेरे होने और न होने में क्यों किसके लिए ये व्यथा व्यर्थ लेते हो अब भी पलट आओ की तुम इस जग में मेरे संग ही सिरोधार्य होते हो
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मेरे सपने मेरे अरमा मेरी नींदे सब लेजा , जो जाता है तू देता जा बस एक उम्मीद वापस आने की , गर देना है कुछ काजल गजरे घुंघरू की आवाज भी ले जा लेकिन इनका क्या काम वहां , जिस जग में रहता है तू फिर भी मैं दूंगी बाँध साथ में कोई निशानी और रख लुंगी साँसों में तेरी खुशबु , यहाँ बसता है तू कहती हूँ अब भी वक़्त है घर आज परदेशी खामखाह बेवजह यु ही भटका जाता है तू
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हे शिव , मैं कैसे मान लूँ की नाग तेरे न मुझको डसेंगे प्रिय मुझे तेरा बनते क्या वो बस ऐसे चुपचाप रहेंगे ? नहीं कहेंगे की हम युगों से करते हैं शीतल जिस कंठ को उस गृह में कैसे सती तेरे भुजा हार बनेंगे डराएंगे भगाएंगे मुझे दिखाएंगे अपने तीखे दांत जब जब शिव तेरे नयन ध्यानमग्न रहेंगे परंतु जब जब खुलेंगे और मुझे देखेंगे शिवेश तृप्त होगा ह्रदय और कहाँ बचेंगे क्लेश उस मस्तक का चाँद शीतल मेरे कंधो में बैठेगा सम्पूर्ण कैलाश इस प्रेम की ऊष्मा से पिघलेगा न मैं नहीं होती भयभीत सर्प से भष्म और भभूत से जैसे शिव वैसी मैं और वैसे हु अनुभव अनूप से निराकार निर्विकार अभूतपूर्व और अभेद्य है विशाल अंतहीन भक्ति प्रेम , महादेव