क्योंकि या तो तुम थी , या मैं जब खो गया था ड्रेस से मैच पिन या एडमिट कार्ड परीक्षा वाले दिन बैग की ज़िप फिर से हुयी थी ख़राब या मुझपर हावी था वक़्त का दवाब या तो तुम थी , या मैं तुमने देखा था और समझा था रंगों का था पागलपन मुझमे हाथ पकड़ ले गयी मैंने सीखा और पाया नया अपनापन जिसमे माँ तेरे बनने से मैंने ममता जानी मेरे ह्रदय के शूल तेरे आंख का पानी या तो तुम थी या मैं फिर ऐसा अरसा कुछ निकला न तुमने जाना न मैंने सोचा कैसे रेत से थे लम्हे निकल भागे मुठी से भाग खुद से रही थी दूर हो गयी तुझी से धूल आईने से साफ़ करते एक दिन फिर तुमको देखा मेरे नैनों में खिंची थी तेरे अख़्शो की रेखा फिर से एकबार हमने मिल के जग जीता थाम हाथ संग थिरके पल भर में युग बीता या तो तुम थी , या
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क्या था मेरा कसूर या था बस तेरा फ़तूर कुछ भी कर गुजरने का और हमारा बस देखना यूँ हक्के बक्के आखिर कबतक कोई झूठे ही दिल बहलाये रखे Sent from my iPhone ये शेर शायरी छोड़ झोंक चूल्हे में कलम न अल्फ़ाज़ काम देंगे न ये इश्क की नज़्म जो सुलग रही हो बेवजह वो आग खाक भर की इसने न चूल्हे जोड़े न कभी रौशनी की रेंगती ये कागज़ों पे साली जोंक ही तो हैं रहे दिमाग में या कलम पे खून चूसती भर हैं नोच फेकू खरोच फेकू सब बेहूदा जज़्बात घूम फिर के अटक जाते है एक नाम पे , हर बात