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Showing posts from October, 2019
भूत वूत कुछ नहीं होते वो तो कम्बख्त यादे होती हैं जो पीछा ही नहीं छोड़ती साये सा मंडराती है हर घडी पर किसी और को नज़र नहीं आती कभी कभी तो एकदम से सामने आकर खड़ी हो जाती हैं लगता है सपना हो, डरावना और फिर गायब होश उड़ाकर ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं और जिंदगी गायब ** Happy Halloween ** 👻
I did not come this far To turn around or stop I did not win that war To lose myself and drop I did not walk numerous rains To just hide tears when I cry I did not breath, every breath To stay alive and still die I did not run so fast To collapse, as I finally reach I came all the way So I can , finally meet me 

मेरी क़िस्मत, रगों में हैं

लकीरों में नहीं है कुछ है कुछ तो जूनून दिल में हो पागल , कोई हो रोग मुहब्बत चीखे सीनो में सुलगती रहे ये चिंगारी हो इश्क खुद से, जीने में चला जा राह जो मिल जाए नहा अपने पसीनों में न कोई डर नहीं सरहद नहीं कोई पाबंदी लबो पे हैं अब तो चाहे जो भी हो मेरी क़िस्मत, रगों में हैं 
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Not asking Not wanting Not waiting Giving Receiving And loving With peace At ease
धरा ज़रा सी खो गयी है , क्युकी व्योम भी अब अपने अथाह में विलीन हो गया है.  उसका तो कभी भी  कोई अदि या अंत नहीं था तो वैसे ही वो कभी किसी डोर से नहीं बंधा था।  वो शायद छूट चुका है और उड़ गया है कही किसी हीलियम के गुब्बारे की तरह.  धरा कुछ दूर , कुछ देर तक उसके आकाशी रंग को मध्धम होते देखती गयी. पहले बेचैनी में और फिर बेबसी में. अब कुछ नहीं, फिर भी  कहीं न कही कुछ चुभता सा तो है अभी भी. वो भी चला जायेगा, बस वक़्त का साथ होना चाहिए.  धरा के पास यु छूट जाने की कोई गुंजाइश नहीं है. उसे तो टिक के रहना है न. वो अपने सीने में कितने ही पेड़ो की अर्सो से जड़ें गाड़े जो बैठी है. व्यथा , ठोकर, चोट ये सब धरा को चुपचाप सहते रहने की आदत तो नहीं, पर फिलहाल जरूरत है. तभी तो जमीन और उनपर पड़े घाव हमेशा हरे रहते हैं, वरना सब बंजर न हो जायेगा।  लेकिन क्या करे धरा, कब तक उस गुब्बारे के छूट जाने का अफ़सोस करे? कबतक अपने ही घास पर लेटी ढूंढा करे उन नजरो को , जिसके निहार लेने से उसके  तारों में भी कुछ छेड़ छाड़ हो जाया करती थी. अब तो जैसे हर सितार की धुनें मंद हैं. बेवज...
जी भर के जिस रात हमने तुमको नहीं कोसा हो वो सुबह कैसे आये भला रातों का क्या भरोषा हो तुमसे आँख मिचौली जो न खेली तो कहो कैसे, नींद आएगी होगी मुकम्मल न जिंदगी न आरज़ूएं ही सताएंगी सब भूल मेरी ही है , जुर्माना भी मेरा तुम कहोगे और चुपचाप मैं मान भी लुंगी क्या लगता है तुमको, क्या ऐसे ही इश्क की बाजी मैं, फिर हार लुंगी? अब हुआ है तो हुआ है ज़रा ज़ायका चखो तुम पलकों न निगाहो में दिल के कोने में रखो तुम खामखा के इशारे और नूर ये तुम्हारा होश किसको खबर क्या, शुरूर ये हमारा कभी ख़ामोशी, कभी सरगोशी लाइलाज़ , मुआं मर्ज़ अब हमारा इश्क़ ऐसा जो हुआ अब क्या दवा, क्या दुआ तब? छोड़ दी है इस पतंग की डोर हाथों में तेरे रब डोर हाथों में तेरे रब

Megha & Akshar

Megha and Akshar ___________________ “Vyom, How could you have missed that detail?” “Which one?” “Remember when you thought, Howrah Bridge was iconic… the landmark for Kolkata and I said Shyam Bazaar Metro…6:30 AM.” ___________________ February 19, 2001. Akshar and Megha spoke the night before as they have been for a while now. Yes, they stumbled upon each other in some random chat room and ended up talking more than they expected. Megha is nineteen and Akshar is twenty-two. Akshar was in Kolkata until a month ago but now he is not. He accepted a job offer for another multinational in Bangalore and must catch a long-distance train and also find a million excuses to see Megha in Kolkata now. But it looks like, he must see her now.  All those silly conversations now turning somewhat serious and a sense of urgency is wrapping around this meeting that needs to happen. Kolkata smells nice especially in Megha’s backyard during the nights. Those jasmine blooms and rain ...