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Showing posts from March, 2020
मैं पंख और परवाज़ भी बस आज उड़ जाने दो जिस राह ये  दिल ले चला है उनपर, आज मुड़ जाने दो छूटता है छूट जाए जो न मेरा था कभी अपने लिए, अपने लिए ख़ुदा से भी, लड़ जाने दो मान ली हैं सारी शर्तें एक जिद की गुंजाइश तो हो अब नहीं दिल मानता है अबकी  बार , अड़ जाने दो 

कुछ अनमने सलाम

हाय हम मुहब्बत की गली को दूर से कुछ अनमने सलाम कहते हैं पर दिल की हर एक तार उफ़ कम्बख्त, उस बेवफा को आज भी, दिलजान कहते हैं तन्हाईयो की रात लम्बी और नुकीले हिज़्र के लम्हे चुभते याद और रिसते ज़ख्म, पैग़ाम कहते हैं न कुछ कहना, न कुछ सुनना, न मिलने की गुंजाइश मेरे धड़कनो में कैसे फिर भला, जनाब रहते हैं ? सुना करते थे लेकिन था यकीं की सच नहीं होते अब नायाब वो किस्से, खुद बयां करते हैं मुहब्बत है बड़ी मुश्किल, पर हो जाये तो क्या करिये की अब आशिक की यादो में सुबह से शाम करते हैं मुकर जाये वो करके जो कभी इज़हार तो उम्मीद बस एक दीदार की और कुछ नहीं, जीते न मरते हैं मिली थी जो निगाहे उनसे, दौड़ी बिजलियाँ एक दिन अभी तक उस चिंगारी से ही शम्मे हम जलाते हैं इतना भी क्या गुरूर , की हुज़ूर हमीं से ये रुस्वाई जिनकी आरज़ू ले हम, उम्र अपनी तमाम करते हैं 

मीरा और कृष्ण

मीरा और कृष्ण बचपन से ही, जब से माँ के मुंह से मीरा के भक्ति गीत सुने है, मन में एक छवि विराजमान है. कृष्ण की नहीं, मीरा की. दिमाग शुरू से ही थोड़ा तेज़, थोड़ा काल्पनिक और थोड़ा दुविधाओं में फंसा हुआ सा रहा है मेरा. इसीलिए शायद, मन बड़ी जल्दी ही कल्पनाओ के घोड़ों पर सवार हो, दूर निकल जाने की क्षमता रखती हूँ, पर ये बात और है की कही पहुंचना नहीं चाहती. और यही बात कुछ एकदम से फिट होती है, मीरा पर. राजघराने की विधवा, जिसने न विवाह जाना न ही उस पति का प्रेम जिसने उसे मंडप में सबके सामने अपनाया था. सिर्फ, सबके सामने अपनाया था. भीतर कहीं, मीलों गहरी खाईयां थी, जो न जीवन में पटी और न ही मृत्यु पर्यन्त. पर मीरा तो बनी ही थी प्रेम और भक्ति के लिए. उसने न छोड़ा प्रेम करना, भले वो प्रेम उसके काल्पनिक कृष्ण का ही क्यों न हो. मीरा की शरीर भले हाड़ मांस का बना हो, लेकिन मुझे इसमें कोई शक़ नहीं की उसकी धमनियों में सिर्फ और सिर्फ प्रेम बहता था. सर से लेकर पाँव तक, भक्ति की मूरत जो की रिस रिस कर टपकता है उसकी एक एक पंक्तियों से. पांच सौ बरस बाद भी , मीरा की लिखी एक एक पंक्ति उतनी ही भीगी भीगी मालूम पड़ती हैं...
क्या तुम्हारी ख़ातिर  मैं दुनिया से लड़ जाऊंगी?  क्या तुम्हे पाने को बस  मैं दिवानी कहलाऊंगी  क्या झलक एक तेरी  मुझको पागल कर जाएगी  क्या तेरी एक आहट सुनने  ये पागल, हद कर जाएगी  क्या बस में मेरे होगा कभी  मेरा मन, जो अब तेरा है  क्या तुम मुझको खुद में पाओगे  सदियों से, जो आइना है  क्या गलत सही क्या राह बची अब  क्या कहना क्या सुनना है  अब तो बस जीने मरने में  मुझको एक दायरा चुनना है
चलो अभी अपने अपने हिस्से का जीते हैं  वही रुको मदिरालय में, मिलकर पीते हैं  कौन किसी से पूछे, क्यों उम्मीदें बांधे  अभी उधारी के धागो से, लम्हें सीते हैं  रंग बिरंगी राते , बस फुसलाने वाली  और चटकती धूप , देह झुलसाने वाली  पाँव फफोलों से जब भर जायें, तो आना  मदिरालय की राहें , मदिरा से रीते हैं  पूरे हो जाएँ ख़्वाब , तुम्हारे भी मेरे भी इसके, उसके, सबके कुछ भले बुरे भी  और प्रतीक्षा की चांदनी प्यालों में भर दूँ  टकटकी में मदिरालय की शामें बीते हैं  बड़ा नहीं कुछ करना, सब नन्हा सा है  अब तो लगता है, कौतुहल अँधा सा है  गजभर आगे जाना और फिसलना फिर खाई  में  हम मदिरालय के ग्राहक , कैसे जीते हैं ? लगी रहेगी भागा दौड़ी , एक और बस एक  कभी तो साँसे लेंगे , देंगे सारा बोझा फेंक  कुछ खोकर कुछ पाकर, करके रफ़ा दफ़ा  हर दिन मदिरालय में खाते खुलते ही रहते हैं  चलो अभी अपने अपने हिस्से का जीते हैं  वही रुको मदिरालय में, मिलकर पीते हैं
मैं बनाकर ताजमहल , अपने मक़बरे पर पढ़  लिया करती हूँ, कलमा इश्क़ का मर चुके है ख्वाब, और अरमान, और वो रूह बस नहीं मरता, कमबख़्त , जज़्बा इश्क़ का 

होरी रे

मोहे रंग गए मोहन रंगीले हरे  पीले लाल नीले अब न धोये , छूटती है  श्याम पक्के , सारे फ़ीके एक मीरा , एक कान्हा मैं तो बस तेरी बावरी रे कौन जाने दिवस रैना प्रीत हर दिन, होरी रे प्रीत हर दिन, होरी रे
खूब लिखूंगी खूब गाउंगी खूब नाचूंगी और जी भर हसूँगी इतना की आंसू निकल आये
मेरी खामोशियाँ कमजोरियां? कतई नहीं कुछ प्रेम कुछ सम्मान है कुछ मर चुका अरमान है कुछ सांस लेते ख़्वाब हैं कुछ हैं दबी चिंगारियां कुछ आहटें हैं बसंत की कुछ सांवली  परछाईयाँ
मर जाती है झूल कर कोई मर जाती है भूल कर वो कौन है ? वो है ही क्यों? डर डर के भला, कैसे  जियूं कब तक मैं गिन गिन सांस लूँ कब तक चलूँ पग फूँक कर कब तक करूँ मैं इंतज़ार सबकुछ लुटा कर, सौंप कर ये रात काली , काली ही है कोई चाँद नहीं अब झांकता इस बेबसी के दौर में सन्नाटे ह्रदय फांकता उसके चले जाने के बाद आंसू बहाना, आसान है जो ठान ले जीने की वो तो फिर गले की फांस है तो फांस बन , तू सांप बन डस ले हरेक लाठी को तू अब सब तमाशा हो चूका तेरी जिंदगी और बाकी तू