सासो की सांकल चढ़ी रखी हैं कालकोठरी में तन की दिन काट रहे हैं न झांकती है कोई किरण रोशनदानों से शीलन घुटन से तनहायी बाँट रहे हैं उलझ पड़ते है बदहवास हो मिज़ाज़ खुदबखुद कोसते कभी , कभी खुद को , डांट रहे हैं ठहरे से दायरे में कहाँ जायजा वक़्त का आसुओं की धार से इंतज़ार , माप रहे हैं
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Showing posts from December, 2016
कैसा होता सुनहरा सपना
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अब कहाँ मैं कभी ये जान पाऊँगी की कौन सी बात मेरी तुमको याद रह जाएगी क्या हंसी वो होगी मेरी या होगा मेरा , इतराना या तुम्हे बेकरार कर जायेगा बेवजह , बस उलझना मेरा आंसुओ को छिपाना ये बता देना , की प्यार है या तुम्हारा ये जान लेना की , मुझे इंतज़ार है वक़्त का रेत सा फिसल जाना लाजमी है , कैसे भला किसे याद हो लम्हो का ठहर सा जाना जब जब , तुम्हारा साथ हो बरसो की साध और युगों का स्नेह अपना न अब जान पाऊँगी कैसा होता सुनहरा सपना
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माफ़ कर दो की बिन तेरे जिया नहीं जाता लम्हा कोई तेरी याद बिन कहाँ है गुज़रता माफ़ कर दो वैसे इसके काबिल तो नहीं मैं तेरे दर्द तेरे चैन कही , शामिल तो नहीं मैं लौट आओ या कह दो चल पगली , बहुत हुआ चुप रही हु , हर पल दिल से निकली है दुआ फिर से बस एक बार कह दो हर शिकायत रिश्तो के मामले में बनती है , इतनी तो रियायत माफ़ कर दो आखिरी बार न होगी कोई अगली बार