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Showing posts from May, 2020

ऐसे कैसे न बोलोगे

"मैं ही क्यों?" कुछ नहीं बोलती मीरा. "बोल न? वरना चला जाउंगा मैं." कबीर ढीठ होकर जरा सा धमकी के लहज़े में कहता है. कुछ तो असर करेगा इसपे। फिर भी , कुछ नहीं कहती वो एकबार फिर. "सुन भी रही हो? जाओ नहीं बोलता मैं भी कभी तुमसे। " अब रुठे से अंदाज में मुंह घूमा लेता है. "ऐसे कैसे न बोलोगे?"  कबीर की ठोढ़ी पकड़ कर अपने चेहरे के सामने ले आती है और अब वो देखता रह जाता है. ऐसे, जैसे पहली बार देखा था. "क्या हुआ? बोलती बंद हो गयी? बोलो क्या पूछ रहे थे? यही न की , तुम ही क्यों कोई और क्यों नहीं ?. मुझसे नहीं पूछ रहे ये सवाल, मन में झांको और जानलो , ये सवाल तुम खुद से पूछ रहे हो. खुद जानना चाहते हो की तुम ही क्यों? मैं तो जानती ही हूँ. इसीलिए तो यही हूँ डटी और टिकी। न कभी कम, न कभी ज्यादा। न कभी कुछ चाहूंगी , न कभी कुछ मांगूगी। जवाब भी नहीं, कोई सवाल भी नहीं। चलेगा? निभेगा तुमसे ? लेकिन बस रहने दो, रह जाने दो न मुझे ठीक मेरे जैसे" हाथ जोड़े, नैने में जल भरे. ना, ऐसे नहीं देख सकता तुझे मैं, कबीर मन ही मन विचलित होता सोचता है. तू तो
“क्या तुम गाते हो?” “नहीं!” “जाओ फिर. प्यार ख़ाक करोगे “ ये थी हमारी तीसरी मुलकात. हर बार बस तीन लाइन की वार्तालाप. वह कुछ पूछती, हम कुछ कहते और वो फैसला करके निकल जाती. अब ऐसे होगा क्या प्यार? हम सोचते रह जाते.

सावली

सावली चार भाईयों पर एक बहन, जब सावली का जनम हुआ तो सबने कहा की "चलो लक्ष्मी आयी है घर में". लेकिन सबकी भौहें उसके सांवले रंग से थोड़ी खींची सी रही. पिताजी का रंग थोड़ा दब है, लेकिन माँ तो भक भक गोरी है और उसपर ही गए हैं चारो के चारो भाई. खैर. नया बच्चा  वैसे भी कब सुन्दर हुआ है. दादी ही एक घर में थी, जो सिर्फ भृकुटि सिकोड़े न रही पर उसका नाम ही सांवली रख दिया. माँ, ने बड़े प्यार से हामी भर दी. वैसे भी किस घर में बेटी के आने पे खुशियाँ मनाई जाती है, यहाँ तो फिर भी सब खुश ही हैं. दादी ने पहले ही कह दिया की, इसकी मालिश सरसों तेल से न करे. कहीं रंग और सावला न हो जाये. तो नारियल तेल को ही उपयुक्त माना गया. सांवली जन्म लेकर, पांच साल की हो गयी तबतक उसके रंग में कोई फर्क न पड़ा और दादी उसके बदलने की आस लिए ही स्वर्ग सिधार गयी. लेकिन जाते जाते, पांच साल की सांवली को दादी एक उपहार जरूर दे गयी. गंगाजल मुंह में जाने ले पहले बस इतने ही शब्द फूटे की "हाय कैसे ब्याह होगा इसका ?" चिंता तो माँ को भी होती थी कभी कभी , लेकिन अपनी औलाद भी तो है. ऊपर से एकलौती बेटी। लाड़ की भी ब

कालेज का पहला दिन

कालेज का पहला दिन, और अमय पहले ही लेट हो गया था। बस आ ही नहीं रही थी. जैसे तैसे रूटीन को समझ और कॉरिडोर में लगभग भागते भागते अपनी पहली क्लास तक पहुंचा. इससे पहले की वो क्लास में घुसता, अंदर से आ रही किसी के गाने की आवाज ने जैसे उसके दोनों पैरों को जंजीरों में जकड दिया. सबकुछ जैसे धुंधला हो गया और उसे सिर्फ एक मीठी से आज में कोई गाता हुआ सुनाई दे रहा था. किस लिए मैंने प्यार क्या, दिल को यु ही बेकरार किया। .. शाम सबेरे तेरी राह देखी , रात दिन इंतज़ार किया. अमय को कोई अंदाजा नहीं था की ऐसे शुरू होगी उसकी पहली क्लास. धुंध थोड़ा छंटा , एक सांस आयी और गयी. जब उसने खुद को सम्हाला तो सामने देखा गहरे नीले रंग के सूट में एक छोटे कद वाली लड़की जमीन पर नज़रे गड़ाए , ये गाना गा रही थी. खिड़की से छन कर आने वाली धूप सीधी उसके चेहरे पर थी और उसके घुंघराले बालो की दो चोटियों में, साक्षात सरस्वती की प्रतिमा लग रही थी. न जाने क्यों ऐसा लगा जैसे, उसकी रूह भी क्या इसी पल को ढूंढ रही थी. और वो टकटकी लगाए देखता गया, इस प्रतीक्षा में भी की , ये नजरे उठाये टी पूरा चेहरा देख सकूं. इतने देर में एक कड़क सी

अंताक्षरी

अमय और श्रुति कैसे दोस्त बन गए , उन्हें भी पता नहीं चला. वैसे तो श्रुति किसी से भी ज्यादा बात नहीं करती, और लड़कों से तो बिलकुल ही नहीं। ज्यादातर अपनी दो  सहेलियों नीता और वर्णा  साथ ही उसका एक क्लास से दूसरे क्लास में जाना होता है. अमय के भी दो ही और दोस्त है , जो हर ब्रेक में कैंपस के बिछ वाले चबुतरे पर कुछ गाते या बजाते मिल जाया करते है. तो यही से शुरुआत हुयी शायद. उस दिन केमिस्ट्री की लैब कैंसिल हो गयी थी , पूरे दो घंटे कुछ काम नहीं था किसी को. कुछ जो जोड़े में थे , कॉलेज की पास वाली पार्क की झुरमुटों का आनंद लेने निकल लिए तो कुछ ने लास्ट की इंग्लिश पीरियड को बंक करने का मन बना कर घर की ओर रुख कर लिया।  बस अमय श्रुति नीता और दीपक बच गए थे. कुछ देर तो सब ने यूही लाइब्रेरी में समय काटा लेकिन बाहर का सुहावना मौसम देख, चबूतरे पर बैठने का मन बना लिया. बातें तो पहले शुरू हुयी कुछ प्रोफेसर की चुगलियों से लेकिन फिर अमय ने ही शायद आईडिया दिया की, अंताक्षरी खेलते हैं. श्रुति और नीता एकदम से तैयार हो गए. श्रुति को तो इतने गाने आते हैं की , कोई आजतक उसको इसमें हरा ही नहीं पाया है और नीता भ

इम्तेहान और इंतज़ार

ख़ाक पहचानोगे सच में, अब तक नहीं समझे तो अब ख़ाक समझोगे? बड़ा गुस्सा आता है मुझे, सेल्फ प्रोक्लेम्ड आशिकों पर. तुम्हे लगता है की तुम्हे तो पक्के से प्यार ही हुआ है, अब बस ये पकड़ना है की सामने वाले को भी है या नहीं. बस हाँ में एक हाँ मिल जाए तो हो जाये जुगल बंदी और कन्फर्मेशन. क्या है यार? कोई कॉन्ट्रैक्ट लिखने निकले हो क्या? कहने को बस की हम तो "प्रेम की खोज" में हैं? गड्ढा प्रेम। प्रेम का प्र समझने में लोगो की उम्र गुजर जाती है और तुम्हे तो उम्मीद है की सारी  जिंदगी प्रेम के किसी एम्यूजमेंट पार्क जैसी होनी चाहिए. एक झूले से उतरे, दूसरे में बैठे. एक रोलर कोस्टर में मजा नहीं आया तो दूसरा ट्राई किया। यही न? और फिर बोलो की, अरे खोज में हैं तो ट्राई करते रहना पड़ेगा न. अगर खुदा न खासते रोलर कोस्टर बीच में रुक गया तो? ख़राब हो गया तो? प्यार भी कम हो जायेगा। लेकिन अभी अभी तो तुम इसपे सवार हवा से बाते कर रहे थे? अब रोलर कोस्टर नहीं बोलता तो तुम भी निकल लोगे है न? खैर, मैं तो अगले निशानी की हिंट दे रही थी. इम्तेहान और इंतज़ार। दोनों ही प्रेम की नियति हैं. कई बार इंतज़ार ही इम्
एक और मन नहीं भरा आखिरी इन्सटॉलमेंट लिख के, इसीलिए एक और लिख रही हूँ. आज आफिस से छुट्टी ली की सारा दिन कुछ पेंडिंग कामो को अंजाम दूंगी. लेकिन सुबह जब मॉर्निंग वाक पर गयी थी और बारिश हो गयी , वापस लौटना पड़ा. लगभग १ मील दूर थी घर से , जब बुँदे गिरनी शुरू हुयी. कुछ ऐसे ही आता है प्रेम आपके जीवन में, जब आपने इसकी बिलकुल ही प्लानिंग न की हो. दूर दूर तक अंदेशा भी न हो आपको की ये बादल कहीं हैं भी. आपने रनिंग शूज पहने होंगे, और ठान के निकले होंगे की आज कम से कम दस मील तो दौड़ना ही है , लेकिन नहीं. अफरा तफरी मच जाएगी, प्रेम बरस पड़ेगा और आप किसी पेड़ की ओट में कुछ देर छिपेंगे। लेकिन थोड़े देर बाद बांहे फैलाये, आँखे मीचे , बारिश में तर होने को भी मन बना लेंगे. या फिर, ऐसा भी हो सकता है की आप, सरपट भागना शुरू कर दे अपने घर की ओर. कुछ को बचाते, छिपते छिपाते। लेकिन अब एक बात बताये, अब इस तरह से भाग भाग के अगर घर पहुँच भी गए तो क्या घंटा उखाड़ लेंगे? नहीं न. तो ठहरो न वही कुछ देर. देख लो कुछ बिजलियों को चमकता। डर लगता है ? वाजिब है लेकिन डर के आगे ही तो जीत है. लेकिन हार जीत के चक्कर में भी क्यों प
प्रेम को पहचान लेना, जानना, समझना और जी लेना तो बड़े बड़ो के बस की बात नहीं, तो मैं कौन सी खेत की मूली हूँ. लेकिन, बाते तो कर ही सकते हैं. तो ये आखिरी इन्सटॉलमेंट लिख रही हूँ, प्रेम को पहचानने की. प्रेम में पड़े हुए लोगो के साथ ऐसा अक्सर होता है की, मिलते - बिछड़ते और मिल-मिल के बिछड़ते कई बार ऐसा लगने लगता है जैसे मिलना बिछड़ना अब कोई मायने ही नहीं रखता। समय की गति कभी मंथर तो कभी और भी मंथर हो जाती है। कुछ भी कर लो वो जूनून है या शुकुन , इसका फैसला दिल कर ही नहीं पाता .  वो नहीं होकर भी है , और ये अब तो रगो में बहने वाला कुछ लाल-लाल सा गर्म-गर्म सा पदार्थ बन गया है. कभी कभी जी में आता है , इसकी एक एक बूँद को अपनी धमनियों से बहा दूँ. लेकिन ये भी पता होता है की इनके साथ थोड़ा थोड़ा खुद भी ख़तम होना पड़ेगा. वो है, तो कुछ कहीं धड़क रहा है अभी है. कुछ तार कहीं जुड़ गए हैं और इनमे से होकर इलेक्ट्रिसिटी अब ऐसे निरंतर बहती है की, क्या कहने. थाउजेंट वाट का बल्ब जैसे खिल जाता है चेहरे पर और जो छू ले उसे भी रौशन कर देता है. पारस मणि बन जाते हैं हम, और ये सिर्फ और सिर्फ एक ही वजह से हो सकता है. 

अब कहाँ हिमालय और कहाँ निआग्रा.

अब कहाँ हिमालय और कहाँ निआग्रा. है कोई तुलना? हिमालय युगो युगो से अचल, अडिग, सूरज की ऊंचाईयों को छूता हुआ , मीलों फैला हुआ पर्वत। ऐसा पर्वत जिसकी गोद में हिमनदियों का जन्म भी होता है, पालन भी। खेल कूद से लेकर यौवन प्राप्त कर विकल उत्श्रृंख नदियाँ यही से निकल कर बढ़ चलती है सागर की ओर . कितनी ही विहड़ों और जंगलो को रौंद देने की ताकत वाली ये नदियां , हिमालय के घर से ही तो आती है. ऐसा विशाल और सक्षम ह्रदय, तो बस हिमालय ही जान सकता है. और दूसरी और है निआग्रा, जो स्थिर होकर भी निरंतर बहती है गरजती तरजती। तीन नदियों , दो देशों और कई सारी झीलों का पानी आता है और टूटकर गिर पड़ता है असंख्य जल कणो की रूप में. ऊंचाइयां इसकी हिमालय की चोटी के तुलनात्मक तो नहीं, पर इसकी गति और आकार भी कुछ अतुलनीय है. जिस तेज से यह टूट कर गिरती है, वही ह्रदय ही जान सकता है इस वेदना को जिसने प्रेम को चखा हो. एक धुंध सा बना लेती है निआग्रा अपने चारों ओर , जैसे बाहुपाश में कस लिया हो और अब किसी की भी नजर न पड़ने देगी. जी, प्रेम थोड़ा स्वार्थी और लालची भी बना जाता है आपको कभी कभी. शायद इसीलिए , यु तो मीलों दूर से हम सु
एक और बात. भूल गयी थी कहना, इसीलिए लिख रही हूँ. पढ़ते रहिये, यक़ीनन बड़े काम की है. ख़ास कर अगर आप अभी भी प्रेम की तलाश में है और मन के अंधेरो में हर तनहा रात में हाथो से टटोल कर देख रहे होते है, की कहीं छिपा बैठा तो नहीं. कभी कभी आप अपनी उंगलिया भी सूंघ कर देखते है, आ रही है क्या इनसे कोई जानी पहचानी खुशबु। वही मन की गलियों वाली. और तब, अगर आपकी सेंसेस अभी तक ठीक ठाक है , आपको महसूस हो जाएगी मिलावट. तो बस यही टॉपिक है आज हमारा, मिलावट वाला प्रेम. कैसी  मिलावट ? अरे, ठीक वैसी वाली,  जैसे साबुत मूंग की दाल में कंकड़। और आपने इतने जतन से उस मूंग की दाल का तड़का बनाया हो , घी हींग लाल मिर्च के छौंक से. जब फाइनली, परोस कर खाने बैठे हो की अहा अब स्वाद वाले सारे सपने साकार होने वाले है. ठीक तभी, आपके पीछे वाली दांत के नीचे आता है वो कंकड़. जी में आता है, ये दाल की कटोरी उठा कर फेंक मारूं अभी के अभी. लेकिन किसे? जिधर भी फेंकू, चोट तो मुझे ही लगने वाली है. ऐसे ही, कुछ मन को भ्रमित कर जाता है आपको अगर सामना हो जाये कभी ऐसे "मिलावट वाले प्रेम से". देखने में ये भी शुद्ध प्रेम जैसे ही ह

श्री दुर्गा सप्तशती - रीसर्च और रेलेवेंस

अठारह साल पहले, जब मैंने अपनी जन्मभूमि से विदा ली थी और एक अनजान देश में , अनजान पथिक के साथ प्रयाण किया था, माँ ने हाथ में श्री दुर्गा सप्तशती की एक कॉपी थमा कर विदा किया था. मैं नहीं जानती वह विदा था या मेरा पलायन।आज तक ये उधेड़ बुन चलती रहती है मन में , लेकिन हर साल दुर्गा पूजा में मैं पुस्तक का पाठ  ज़रूर करती आयी हूँ. काफी हिस्से तो रटे हुए हैं, कुछ माँ  की आवाज़ में आज भी कानो में गूंजते है और कुछ मन के यदा कदा कोनों में अनायास ही. अनगिनत किये  जाने वाले एकांत के क्रिया कलापों में से एक ये भी है, प्रार्थना. किताब पर अगरबत्ती, मोम और दिए के धुँए की परत अब बैठ सी गयी है. जीवन के इस मोड़ पर, जब कई सवाल मुँह बाकर खड़े हो गए मेरे सामने, कुछ न सुझा तो मैंने फिर से अध्यात्म का सहारा लिया. सरस्वती का थोड़ा बहुत आशीर्वाद रहा ही है, सोचा अगर कुछ कृपा भगवती की भी हो जाए तो कुछ न कुछ करके मैं पास हो जाउंगी इस इम्तेहान में भी. मरता क्या न करता, एक आध रूल और तोड़े. अब बिना खाये, नहाकर , दिए जलाकर ही किताब खोली जाए ऐसा कहाँ लिखा है? वैसे भी अब ये किताब मैं सिर्फ अध्यात्म और भक्ति नहीं पर री
हम इंसानो को भी न हमेशा नयी दुनिया बनाने की पड़ी  होती है क्यों न उसे भी आजमाले अच्छी भलो जो कुदरत ने दे रखी है ?
सारी अनकही बाते किसी तरह खाली हो जाएँ तो मैं भी कसम से ये पैमाने खाली करना छोड़ दू
परिवर्तन आता है धीरे धीरे एक किरण हलकी सी लेकर भोर आती है चिलचिलाती धूप भी और भरती है बादल की गोद और धरती का आँचल भी तो बस एक किरण आशा की एक दिया उम्मीदों का रखो जलाये चाहे हो जितने भी आंधी और झंझावात कुछ भी नहीं ठहरता चलता रहता है सब यु ही बस ऐसे ही तो फिर? जानलो परिवर्तन आएगा निश्चित है आएगा

कहानी में ट्विस्ट

कहानी में ट्विस्ट तो कहाँ थे हम? हाँ, वो शुरुर वाले फेज में. बस, ये जो है न , बस यही बेस्ट टाइम है प्रेम पे पड़े रहने का. उसके आगे भी अँधेरा है और पीछे भी. गाँठ बाँध लो अभी से. जैसे कहा मैंने लास्ट एपिसोड में, ये ऐसा टाइम है जो तुमसे कुछ भी करवा जाता है. छोटे मोटे ड्रामे से लेकर बड़े बड़े आतंक , ऐसी ताकत होती है इस नशे में की कुछ भी कर गुजरते हैं हम. जिंदगी हमेशा के लिए बदल जाए , ऐसा जूनून सर पे सवार हो जाता है. पर , ट्विस्ट तब आता है जब हमें ये पता चलता है की ये तो बस हमारी जिंदगी है जो बदले जा रही है. हमारे साथ , न तो दुनिया बदल रही है न ही हमारा माशूक़ ? अब क्या करें? बड़ी मुश्किल हो गयी ये तो. अब एक तरफ जी चाहता है की नशा कभी न उतरे , क्युकी इसमें हमने पहली बार जिंदगी को चखा है. दूसरे ओर , दिमाग थोड़ा थोड़ा कुलबुलाने सा लगा है , की सिर्फ मैं क्यों? इसीलिए ये जो है न बड़ी दुविधा वाली घडी होती है, और एक मायने में सही वाला इम्तेहान. ज्यादातर लोग, इस टर्न पे काफी देर टहलने के बाद आखिरकार ये पता कर लेते है प्रेम है या नहीं. असल में ये तो पता नहीं चलता की प्रेम है या नहीं, पर ब
मैं न बोलूं न बोलूं अब तोसे कान्हा रूठ गयी, जा मीरा अब न न जाए सहा दिन न आये बड़ी लम्बी ये रतियाँ विरहा  मैं न बोलूं न बोलूं अब तोसे कान्हा

translation

Aaj mon cheyeche ami hariye jabo Hariye jabo ami tomar sathe Sei ongikarer rakhi poriye dite Kichu somoy rekho tomar haate Kichu swopne dekha kichu golpe shona Chilo kolpona jaal ei praane bona Taar anurager ranga tulir chowa Nao buliye noyonopaate Tumi vashao amay ei cholar srotey Chiro saathi roibo pothe Tai ja dekhi aaj sobi valo laage Ei notun gaaner sure chondo raage Keno diner aalor moto sohoj hoye Ele amar gohon raate Today, I desire to lose myself To lose myself, with you To tie that knot, of intimacy Keep some time, at your disposal In those dreams, I had seen And in those fairly tales , I heard and woven my own web of thoughts in heart dipped in the fondness, the brush now now feathers over, these eyelids drown me, in these waves of ways forever, companion I will be and, I admire everything now that I behold in this, new harmony and tune that plays why, so naturally, like the morning rays you dawned upon my darkest nights

पहचानोगे कैसे २

पहचानोगे कैसे २ मूड तो आज भी नहीं है, लेकिन वादा किया था की बात आगे बढ़ाई जाए. वादे की पक्की हूँ मैं, अब ऐसा मैं सोचती हूँ. लेकिन सच मानो तो, मुझे अपने पे भी ज्यादा भरोसा नहीं रहा कभी. क्यों? सब, मुये प्रेम की वजह से. कौन सा वाला प्रेम? अरे वही, मैंने प्यार किया वाला प्रेम. "आते जाते। ..हँसते गाते।।वो पहली नज़र , हल्का सा असर" . कच्ची उम्र थी, कर लिया यकीं. नतीजा? कहानी पे कहानी, कविता पे कविता लिखे जा रही हूँ , अरसो से. हाँ, यही टॉपिक है आज का. एक और निशानी , पहचानने की. प्रेम जो है न, वो तुमसे ऐसी ऐसी चीज़े करा देता है जो तुमने कभी सपने में भी नहीं सोची थी. कभी सनकी , कभी उटपटांग और कभी तो , अब क्या कहूँ... मर्यादा गरिमा ईगो सब कुछ, सबकुछ को तिलांजलि देने वाली बात भी कर बैठते हैं लोग. अब, नो पर्सनल क्वेश्चन. ज्ञान चाहिए? तो बस उतना ही मिलेगा. अब होता यु है, की तुम्हे एक हल्का हल्का शुरुर होगा और जिस मोमेंट में वो शुरुर होगा, उस मोमेंट तुम जो भी कर रहे हो या सोच रहे हो , वही बन जाएगी तुम्हारी लत. अगर, गली के मोड़ पर तुमने देखा था वो लहराता आँचल और बस छा
पहचानोगे कैसे? अच्छा, तो प्रेम की तलाश में हो तुम. अब तलाश में हो तो कुछ आईडिया होगा की प्रेम कैसा होता है? कैसा दीखता है, कद काठी? रूप रंग ? या सिर्फ हिंदी सिनेमा से प्रभावित, गिटार के धुनों को रट कर निकल पड़े ढूंढने? देखा जो तुझे यार, दिल में बजी गिटार? रियलिटी चेक. गिटार नहीं बजेंगे। क्युकी वायलिन, पियानो या बांसुरी भी तो बज सकती है न? कोयल गा सकती है , अमावस में चाँद दिख सकता है, कुछ भी हो सकता है. इश्क है, कोई हलवा नहीं की चम्मच उठायी और चख ली, और हर दफा मीठी लगी. तो अब मुद्दे की बात करे? हाँ. तो , कैसे पहचानोगे प्यार ही है? अगर वो एकदम से सामने आ जाये? चाँद, बादल और बारिश में अच्छा खासा इंटरेस्ट भी हो. तुम्हारे  हिंदी गाने के मुखड़े में वो अंतरा मिलाये. इतना ही नहीं, नींद न आने की बीमारी भी हो? उम्र , रंग और सोशल स्टेटस के इंची टेप निकाल बैठोगे क्या? निकाल सकते हो, मुझे इन सबसे कोई आपत्ति नहीं, पर इन सबको निकालते निकालते कही ,प्रेम निकल लिया? तो हमें मत कहना. अब हम कोई प्रेम के प्रकांड पंडित तो नहीं, पर जिंदगी जी है और थोड़ी बहुत गुजरते हुए महसूस भी किया है प्र

रंगरेज़

रंगरेज़ रंगरेज़ ही तो हो तुम, की चलती ट्रैन में मेरी कमर पे उंगलियां रखी और सब ऐसा गुलाबी हुआ की आज बीस बरस बाद भी वैसे का वैसा है. गुलाबी साड़ी पहनी भी थी मैंने, वैसे साड़ी पहली बार पहनी थी. सफ़ेद धागों का कुछ महीन सा काम था पुरे बॉर्डर पर. कोई वजह मुझे याद नहीं की क्यों साड़ी पहन कर उस दिन ट्रैन से जाने का तय किया था. हाँ ये जरूर पता था की तुम उसी ट्रैन से जाओगे ऑफिस आज. हमारी बात हुयी थी सुबह. लेकिन बात कुछ अधूरी रह गयी थी, शायद इसीलिए? पूरी करनी थी. कितनी पूरी हुयी ये तो पता नहीं, पर उस लम्हे में जिंदगी जरूर थी. बात तो हर रोज़ होती थी पर आज जरुरी हो गया था , की कुछ जज्बात , कुछ हालात बाँट लिए जाए. अब हर ट्रांसक्शन टेबल कुर्सी में बैठ कर नहीं होते, न ही डॉक्युमनेट्स साइन करके. कुछ तो होते है , जून की दुपहरी में, ठसाठस भरी ट्रैन के जनरल कम्पार्टमेंट में. हाँ, कुछ ऐसा हुआ था. अरसे हो गए पर अभी भी आँखे बंद करती हूँ तो चलती ट्रैन में आ रही तेज़ हवा मेरे पीठ को ठीक वैसे ही छु कर गुजर जाती है , रोंगटे फिर एक बार है और दिल धड़क कर सीने से लगभग बाहर आ ही जाता है समझो. और रंगरेज़ मेरे , गुलाबी

अर्जुन १

अर्जुन १ रात भर नींद नहीं आयी आज ठीक से, पता नहीं कब फाइनली आँख लगी मेरी. इस टेंशन में की सुबह सुबह सूर्योदय के पहले कुरुक्षेत्र पहुंचना है. देर रात , युधिष्ठिर और भीम के साथ बैठा योजनाओं पर ही डिस्कशन होती रही. कौरवो की सेना के आगे खड़े होना, कोई मजाक है क्या. अभी भी ३ ही बजे हैं. अर्जुन फ़ोन  में देखता है, और एक के बाद एक टेक्स्ट मेस्सगेस को प्रॉम्प्ट्स आने  लगते हैं. अरे, कृष्ण का भी मैसेज था. "गुड लक ब्रो , कल मिलते हैं.. बिग डे टुमारो." ये जनाब रात हमारी स्ट्रेटेजी मीटिंग में भी न आये थे. बोले, हमें क्या , हम तो बस रथ हाँक रहे है। ये सब आपलोग देख ले। ग्वाला हूँ, हांकने में तो वैसे ही ट्रेंड  हूँ. और सब ठहाके लगाने लगे थे. सबके सर पर मौत झूल रही है, और कृष्ण सबको हंसा कर निकल लिए. ब्रश करते करते सोच रहे हैं अर्जुन, बंदा कमाल है लेकिन. देर रात बांसुरी की आवाज आ रही थी उसके कमरे से. बड़ा अच्छा बजाता है , शायद वही सुनते सुनते झपकी आ गयी थी मुझे. चलो एक घंटे ही सही थोड़े रिलैक्स हो गया. लगता है द्वार खुल गए हैं. घोड़े , हाथी वाली लाइन उप की आवाजे यहाँ तक आ रही

बेचैन

बेचैन जहाँ सारी दुनिया चैन और शुकून ढूंढ रही होती है, हमारी मीरा बेचैनियाँ जमा करने में माहिर है. ऐसा नहीं की दुनिया में कुछ कमी है बेचैनियों की, लेकिन फिर भी ढूंढ ढूंढ कर वही जमा करना? ये क्या बात हुयी आखिर? चाहे वो बेचैनी हो, अंदर एक कुलबुलाती कहानी के रूप में या फ्रिज में पड़े भिंडी की चिंता में की आज न बनाये तो कही सड़ न जाये. जी, भिंडी से लेकर साहित्य तक के दायरे में जितनी बेचैनियों की कल्पना की जा सकती है , वो सब के मीरा के ही हिस्से में आ गए हैं. पर मीरा हमेशा ऐसी तो न थी? उसे तो भिंडी करेले या पालक, यहाँ तक की नीम तक से कोई उलझन नहीं होती थी. सब को सप्रेम आदर पूर्वक अपना लेना ही उसको आता है ,  तभी तो माँ को कम से कम एक परेशानी कम थी मीरा को लेकर. हाँ, धुप में घंटो बैठकर पेड़ पौधो या बादलों से बातें करना थोड़ा चिंताजनक तो था पर अब सबकुछ तो नहीं हो सकता न। बारिश हो जाए तो गड्ढो में छलांग लगाकर खुश और कड़ाके की धुप हो जाये तो फ्रिज के आइस क्यूब के साथ खेल लेना , कौन सी समस्या ऐसी थी जो मीरा के बस के नहीं थी भला? फिर ये बेचैनियों के जो झाड़ फानूस उग रखे हैं आज, वो आये कहा से? कौ